नई दिल्ली : सियासत में जब भी कास्ट पालिटिक्स की बात आती है तो लोगों की निगाहों में उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों की तरफ जाती है, लेकिन दक्षिण के राज्य भी इससे अछूते नहीं है. कर्नाटक विधानसभा की चुनावी बिसात जातियों की पिच पर बिछाई जा रही हो, क्योंकि राज्य की पूरी सियासत इसी के इर्द-गिर्द सिमटी हुई है. यहां की राजनीति लिंगायत और वोक्कालिंगा के बीच सिमटी हुई है और ज्यादातर मुख्यमंत्री भी इसी समुदाय से बने हैं. वहीं, दलित, मुस्लिम, कोरबा, ओबीसी, ब्राह्मण जैसी जातियां भी है, जो किसी भी दल का खेल बनाने और बिगाड़ने की ताकत रखते हैं.
कर्नाटक विधानसभा चुनाव जातीय, धार्मिक, क्षेत्रीयता और विकास के मुद्दों के बीच उलझा है, लेकिन इससे बड़ा सवाल ये है कि किस पार्टी का आधार किस जातीय के पर टिका है और उस जातीय के मतदाताओं को सियासी पार्टियां कितना प्रभावित कर रहे है? आइए कर्नाटक की कास्ट पालिटिक्स समझते हैं और अलग-अलग जातियों के सियासी प्रभाव को चुनावी लिहाज से जानने की कोशिश करते हैं…
कर्नाटक बीजेपी में खलबली
कर्नाटक की सियासत में सबसे अहम और ताकतवर लिंगायत समुदाय को माना जाता है. लिंगायत समुदाय की आबादी 16 फीसदी के करीब है, जो राज्य की कुल 224 सीटों में से लगभग 67 सीटों पर खुद जीतने या फिर किसी दूसरे को जिताने की ताकत रखते हैं. लिंगायत समाज को कर्नाटक की अगड़ी जातियों में गिना जाता है, लेकिन उसे आरक्षण देने के लिए ओबीसी का दर्जा दिया जा चुका है.
लिंगायत समुदाय लंबे समय तक कांग्रेस का वोटर रहा है, लेकिन 1990 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने लिंगायत मुख्यमंत्री वीरेंद्र पाटिल को बर्खास्त कर दिया था तब से बीजेपी के कोर वोटबैंक बन गए है. बीजेपी के करीब लिंगायत समुदाय को लाने में बीएस येदियुरप्पा का रोल अहम था.
सामाजिक रूप से लिंगायत सेंट्रल कर्नाटक, उत्तरी कर्नाटक के क्षेत्र में प्रभावशाली जातियों में गिनी जाती है. राज्य के दक्षिणी हिस्से में भी लिंगायत लोग रहते हैं. मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई लिंगायत समुदाय से आते हैं और बीजेपी उनके चेहरे को आगे कर चुनावी मैदान में है तो कांग्रेस की नजर भी लिंगायत समुदाय पर है. बीजेपी के कद्दावर चेहरा बीएस येदियुरप्पा पहले की तरह सक्रिय नजर नहीं आ रहे हैं. 2018 में सबसे ज्यादा 58 लिंगायत विधायक जीतकर आए थे. बीजेपी से 38, कांग्रेस से 16 और जेडीएस के 4 विधायक थे. इस बार लिंगायतों का भरोसा बीजेपी पर पहले की तरह कायम रहता है या फिर कांग्रेस सेंध लगाने में कामयाब रहेगी.
वोक्कालिगा का सियासी जोर
कर्नाटक में वोक्कालिगा दूसरी सबसे जाति है. सूबे में वोक्कालिगा 11 फीसदी है, जो करीब 48 विधानसभा सीटों पर प्रभाव रखते हैं. वोक्कालिगा दक्षिणी कर्नाटक की एक प्रभावशाली जाति है और जेडीएस का को वोटबैंक माना जाता है. लिंगायत की तरह ही वोक्कालिगा समुदाय का भी सियासी रसूख है. इस समुदाय का सबसे बड़ा मठ चुनचनगिरी है. बीजेपी इस मठ में लगातार संपर्क बनाए हुए है तो कांग्रेस भी पूरी ताकत झोंक रखी है तो जेडीएस को अपने वोटबैंक को बचाए रखने की चुनौती से जूझ रही है. वोक्कालिगा के मठो की संख्या करीब 150 है, जिनके चक्कर सभी दल लगा रहे हैं.
जेडीएस के संस्थापक व पूर्व पीएम एचडी देवगौड़ा और कुमारस्वामी वोक्कालिग्गा समुदाय से आते हैं. कांग्रेस के सबसे बड़े चेहरा डीके शिवकुमार भी वोक्कालिगा समुदाय से आते हैं. बीजेपी के पास वोक्कालिगा समुदाय का कोई प्रभावी चेहरा नहीं है. वोक्कलिगा समुदाय दक्षिण कर्नाटक के जिले जैसे मंड्या, हसन, मैसूर, बैंगलोर (ग्रामीण), टुमकुर, चिकबल्लापुर, कोलार और चिकमगलूर इलाके की सियासत को प्रभावित करते हैं. पिछली बार वोक्कालिगा समुदाय के लोगों ने जेडीएस पर सबसे ज्यादा भरोसा जताया और उसके बाद कांग्रेस. इस बार देखना है कि वोक्कालिगा समुदाय के दिल में कौन जगह बना पाता है?
दलितों का दिल कौन जीतेगा
कर्नाटक में लिंगायक और वोक्कालिगा के बाद सियासत को सबसे अधिक प्रभावित अनुसूजित जाति (दलित) समाज करता है. राज्य में अनुसूचित जातियों की संख्या कुल आबादी की 19.5 फीसदी है जो कि राज्य में सबसे बड़े जातीय समूह के रूप में है. ये दलित दो भागों ‘वाम दलित’, या मदिगास या ‘अछूत’ और ‘दक्षिणपंथी दलित’ या “छूत” या होलीया समुदायों में बंटे हुए हैं. दलित समुदाय के लिए 36 विधानसभा सीटें रिजर्व है, लेकिन इससे भी ज्यादा सीटों पर असर रखते हैं. पिछले चुनाव में बीजेपी को दलित बहुल सीटों पर बहुत ज्यादा फायदा मिला था. कांग्रेस और जेडीएस को इन सीटों में नुकसान झेलना पड़ा था.
कर्नाटक से आने वाले कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे दलितों के सबसे बड़ा चेहरा हैं. कर्नाटक खड़गे का गृह राज्य है, जिसका कांग्रेस को फायदा मिल सकता है. पिछली बार यानी 2018 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को सबसे बड़ी पार्टी बनाने में दलितों का बड़ा योगदान रहा था. बीजेपी को दलित समुदाय का 40 फीसदी वोट मिला था जबकि कांग्रेस को 37 फीसदी और जेडीएस को 18 फीसदी वोट प्राप्त हुआ था. पिछले कुछ सालों से सूबे में एससी समुदाय के बीच कांग्रेस का जनाधार सिकुड़ता जा रहा है. ऐसे में मल्लिकार्जुन खड़गे के पार्टी अध्यक्ष बनने से कर्नाटक का दलित वोट बैंक फिर से कांग्रेस के प्रति लामबंद हो सकता है, लेकिन बीजेपी भी पूरी ताकत झोंक रखी है.
अनुसूचित जनजाति किसके साथ
कर्नाटक में आदिवासी समुदाय करीब सात फीसदी है और 15 सीटें उनके लिए रिजर्व हैं, लेकिन सियासी प्रभाव इससे कहीं ज्यादा है. ये मुख्य तौर से मध्य कर्नाटक और उत्तरी कर्नाटक के इलाके में राजनीतिक प्रभाव रखते हैं.
2018 में आदिवासी समुदाय के 15 विधायक चुनकर आए थे, जिनमें कांग्रेस और बीजेपी को बारबर-बराबर सीटें मिली थी. आदिवासी समुदाय का भी 44 फीसदी वोट बीजेपी को मिला था जबकि कांग्रेस को 29 फीसदी और जेडीएस को 16 फीसदी वोट मिले थे. ऐसे में इस बार के चुनाव में बीजेपी आदिवासी वोटों को साधने के पूरी ताकत झोंक रखी है तो कांग्रेस ने अपने सारे घोड़े खोल रखे हैं.
मुसलमान किसके साथ
कर्नाटक की सियासत में मुस्लिम समुदाय भी अपनी अहम भूमिका रखता है. सूबे में मुसलमानों की आबादी सात फीसदी है और राज्य की करीब 40 सीटों पर असर रखते हैं, लेकिन उनका प्रतिनिधित्व आबादी के हिसाब से कभी नहीं रहा है. 2018 में महज सात मुस्लिम विधायक चुने गए थे और सभी कांग्रेस के टिकट पर जीते थे. बीजेपी और जेडीएस से एक भी मुस्लिम विधायक नहीं चुना गया था. हैदराबाद से सटे हुए कर्नाटक के गुलबर्गा में मुस्लिमों की अच्छी-खासी आबादी है तो मेंगलुरु, भटकल, उडुपी मुरुदेश्वर बिदर, बीजापुर, रायचुर और धारवाड़ जैसे इलाकों और ओल्ड मैसूर के क्षेत्र में भी मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका अदा करते हैं.
दक्षिण कन्नड़, धारवाड़, गुलबर्गा वो इलाके हैं जहां 20 फीसदी से ज्यादा मुस्लिम वोटर हैं. खास बात ये भी है कि यहां शहरी क्षेत्रों में मुस्लिम ज्यादा संख्या में हैं. शहरी क्षेत्रों में करीब 21 फीसदी और ग्रामीण क्षेत्रों में करीब 8 फीसदी मुस्लिम जनसंख्या है. तटीय कर्नाटक और उत्तर कर्नाटक में मुस्लिम बहुल 23 सीट है. कांग्रेस इन इलाकों में ज्यादा मजबूत है. कर्नाटक की वोटिंग पैटर्न देखें तो मुस्लिम समुदायों का वोट कांग्रेस और जेडीएस को पड़ता रहा है.
कर्नाटक में इस बार बीजेपी ध्रुवीकरण का दांव चल रही है. कर्नाटक की बोम्मई सरकार ने शुक्रवार मुस्लिमों को अलग से मिल रहे चार फीसदी आरक्षण को खत्म कर दिया है तो कांग्रेस सत्ता में आने के बाद उसे बहाल करने का वादा कर किया है. कर्नाटक में हिजाब से लेकर आजान, हलाल मीट और मुस्लिम आरक्षण तक को लेकर सियासत गर्मा गई है. मुस्लिम वोटों के ताकत को देखते हुए असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी भी किस्मत आजमाने के लिए बेताब है.
कोरबा समुदाय किसके साथ
कर्नाटक में स्थानीय मान्यताओं के अनुसार कुरुबा जाति को चरवाहा माना जाता है. ये पूरे कर्नाटक में फैले हुए हैं. हालांकि, राजनीतिक तौर पर इन्हें बहुत ताकतवार तो कभी नहीं माना गया है, लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया इसी समुदाय से आते हैं. ऐसे में इनकी सियासी ताकत बढ़ी है. कर्नाटक में कोरबा जाति की आबादी करीब 7 फीसदी है, लेकिन दो दर्जन से ज्यादा सीटों पर किसी भी दल का खेल बनाने और बिगाड़ने की ताकत रखते हैं. कोरबा समाज सिद्धारमैया की वजह से कांग्रेस का कोर वोटबैंक माना जाता है. ओल्ड मैसूर के इलाके में कोरबा समुदाय काफी प्रभावी है.
सिद्धारमैया के मुख्यमंत्री बनने के बाद एक बार यह दिखने लगा था कि शायद कर्नाटक की सियासत जातिगत राजनीति के दौर से निकलकर नई अवधारणाएं गढ़ेगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. वोक्कालिगा और लिंगायत समुदाय के बीच सियासत अभी भी सिमटी हुई है. कोरबा समुदाय ओबीसी में आते हैं. 2018 के चुनाव में उन्होंने कांग्रेस को एकमुश्त वोट दिया था. इस बार भी कोरबा कांग्रेस के साथ खड़ा है, लेकिन बीजेपी और जेडीएस दोनों ही उन्हें साधने की कवायद कर रही है.
ओबीसी के दिल में कौन
कर्नाटक में ओबीसी की आबादी तो काफी ज्यादा है, लेकिन वोक्कालिगा, कोरबा समाज को अलग कर देखे जाने से इनकी आबादी करीब 16 फीसदी है, जो अलग-अलग जाति और उपजातियों में बंटे हुए हैं. राज्य में पिछड़ा वर्ग के प्रभाव वाली 24 सीटें आती है.
पिछली बार ओबीसी समुदाय का बड़ा हिस्सा बीजेपी को गया था और उसके बाद कांग्रेस को मिला था. राज्य में 22 विधायक ओबीसी चुनकर आए थे. कर्नाटक में ओबीसी समुदाय में अलग-अलग जातियों के अलग नेता है और उनका अपने-अपने क्षेत्र में पकड़ है.
कर्नाटक में ब्राह्मण सियासत
कर्नाटक में भले ही ब्राह्मण समुदाय भले ही दो फीसदी है, लेकिन उससे कहीं ज्यादा वो सियासत को प्रभावित करते हैं. राज्य में एक दर्जन से ज्यादा ब्राह्मण हमेंशा से विधायक चुने जाते रहे हैं. बीजेपी का यह परंपरागत वोटर माने जाते हैं. बेंगलुरु क्षेत्र में ब्राह्मण मतदाता काफी निर्णायक भूमिका में है. इसके अलावा शहरी क्षेत्र की सीटों पर भी असर रखते हैं. 2018 के चुनाव में कुल 14 ब्राह्मण विधायक चुने गए थे, जिसमें कांग्रेस से ढाई गुना विधायक बीजेपी से जीतकर आए थे. ब्राह्मण समुदाय के बीच जेडीएस अपना प्रभाव नहीं जमा सकी है.
कर्नाटक में अन्य जातियों का प्रभाव
कर्नाटक में कई अन्य जातियां भी है, जो किसी भी भी दल का खेल बनाने और बिगाड़ने की ताकत रखते हैं. ईसाई समुदाय की आबादी करीब 2 फीसदी है और एक विधायक कांग्रेस से जीते हैं. इसके अलावा बौद्ध और जैन जैसे अल्पसंख्यक समाज के भी मतदाता है, जिनका आबादी करीब 2 फीसदी है.
वहीं, अन्य जातियों का करीब ढाई फीसदी मतदाता हैं. अन्य जातियों से भी कई विधायक जीतकर आए हैं, जिनमें कांग्रेस और बीजेपी बराबर-बारबर सीटें जीतने में सफल रही थी. कांग्रेस से केवल एक ईसाई जीत की पटकथा लिखने में कामयाब रहा था बीजेपी के टिकट दो कोडवा विधायक चुने गए हैं. इन्हीं तमाम जाति के इर्द-गिर्द कर्नाटक की सियासत सिमटी हुई है?