नई दिल्ली: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस हफ्ते यूरोप के दौरे पर थे. रूस बीते कई दशकों से भारत का निकट सहयोगी रहा है, तो ऑस्ट्रिया में 40 साल बाद भारत का कोई प्रधानमंत्री पहुंचा था. भारत को इस दौरे से क्या हासिल हो सकता है.प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विदेश दौरा अकसर उनकी गर्मजोशी, प्रोटोकॉल से अलग निजी मुलाकातों, बड़े समारोहों और बड़ी घोषणाओं की वजह से भी चर्चा में रहता है. इस हफ्ते जब वो रूस और ऑस्ट्रिया की यात्रा पर निकले तो भी यह उत्सुकता थी. तीन साल बाद पुतिन से मॉस्को में उनकी मुलाकात को खास बनाने की भरपूर कोशिश हुई. पुतिन के घर में निजी डिनर ने इसमें कुछ और सितारे जोड़े. दोनों नेताओं ने रूस और भारत के साथ ही आपसी दोस्ती के व्यापक दायरे दिखाने के लिए भी इस मौके का इस्तेमाल किया. मोदी और पुतिन की मुलाकात में आपसी कारोबार और रक्षा सहयोग को आगे बढ़ाने पर चर्चा हुई.
किसी बड़े नए समझौते की खबर अब तक सामने नहीं आई है, लेकिन दोनों देशों के बीच कारोबार और रक्षा सहयोग जिस ऊंचे स्तर पर है, उसमें ज्यादा बदलाव ना हो, तो भी वह बहुत है. पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों के बाद सस्ती कीमत पर मिल रहे रूसी तेल को भारत ना सिर्फ भारी मात्रा में खरीद रहा है, बल्कि कुछ देशों को बेच भी रहा है. मोदी की रूस यात्रा का क्या होगा असर यूक्रेन पर हमले के बाद रूस को अलग थलग करने की कोशिशों में जुटे पश्चिमी देशों की ऐसी मुलाकातों पर खास नजर रहती है. जब प्रधानमंत्री मोदी रूस में थे, उसी समय यूक्रेन में बच्चों के अस्पताल पर रूस ने हमला किया. प्रधानमंत्री मोदी ने हमले के पीड़ितों के लिए संवेदना के दो शब्द कहे, लेकिन रूसी हमले की आलोचना में कुछ नहीं कहा.
पुतिन से गले लगते मोदी की तस्वीरें सामने आने के बाद यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की ने मोदी के रूस दौरे की काफी आलोचना की. इसी वक्त अमेरिका और पश्चिमी देशों के सैन्य सहयोग संगठन नाटो की 75वीं सालगिरह के मौके पर वाशिंगटन में सदस्य देशों की बैठक भी चल रही थी. भारत की रणनीतिक स्वतंत्रता अमेरिका और पश्चिमी देशों के साथ भारत के संबंधों के अच्छे दौर में भारत की रूससे नजदीकियों को लेकर पश्चिम में बार बार सवाल उठते हैं. यह सवाल प्रधानमंत्री मोदी के इस दौरे पर भी था कि जब भारत शांति की वकालत और युद्ध समाधान नहीं होने के दावे करता है तो फिर यूक्रेन युद्ध पर पुतिन को समझाता क्यों नहीं?
भारत और रूस के संबंधों में कारोबार, कूटनीति और सहयोग की कई परतें हैं, लेकिन मामला सिर्फ इतना ही नहीं है. अपने पारंपरिक मित्र देश से नजदीकियों और कारोबारी फायदों के अलावा भारत की मंशा विदेश नीति में खुद को स्वतंत्र दिखाने की भी है. दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में स्कूल ऑफ यूरोपीयन स्टडीज के प्रोफेसर गुलशन सचदेवा ने डीडब्ल्यू से कहा, “तीन साल के अंतराल के बाद, सम्मेलन स्तर की बैठकें एक बार फिर से होने लगी हैं. अमेरिका और यूरोप से बढ़ती साझेदारी के बावजूद, इस दौरे ने भारत की रणनीतिक स्वतंत्रता पर दोबारा से मुहर लगाई है” रूस में पुतिन से मुलाकात के बाद ऑस्ट्रिया की राजधानी
वियना पहुंचे प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, “यूक्रेन में शांति और स्थिरता के लिए हर तरह से सहायता करेंगे” ऐसे बयानों से भारत की कोशिश यह दिखाने की है कि वह युद्ध का पैरोकार नहीं और यूक्रेन में शांति चाहता है, लेकिन इसके लिए रूस से अपनी दोस्ती कमजोर करने को तैयार नहीं है. बीते महीने यूक्रेन पर शांति सम्मेलन में साझे बयान से भारत ने खुद को अलग कर लिया था. पश्चिमी देश इसे पसंद करें या नहीं लेकिन भारत अपनी स्वतंत्र विदेश नीति को बरकरार रखना चाहता है, जिसे कई देश उचित और अनुकरणीय मान रहे हैं. ऑस्ट्रिया का ऐतिहासिक दौरा इस बार प्रधानमंत्री मोदी की यूरोप यात्रा की बड़ी उपलब्धि ऑस्ट्रिया दौरा भी है. ऑस्ट्रिया के साथ कूटनीतिक संबंधों की 75वीं वर्षगांठ पर वियना पहुंचे नरेंद्र मोदी के रूप में 40 साल बाद कोई भारतीय प्रधानमंत्री यहां आया. तो क्या सिर्फ इसी वजह से इस दौरे को ऐतिहासिक कहा जा रहा है? विश्लेषक ऐसा नहीं मानते. भारत के ऑब्जर्वर फाउंडेशन की विजिटिंग फैकल्टी वेलिना चाकारोवा वियना में भूराजनीतिक मामलों की कंसल्टिंग एजेंसी, फॉर ए कॉन्शस एक्सपीरियंस की संस्थापक प्रमुख भी हैं.
वेलिना चाकारोवा का कहना है कि प्रधानमंत्री मोदी के दौरे को ऐतिहासिक कहने की वजह बीते दशकों का अंतराल नहीं, बल्कि आज के संदर्भ में दोनों देशों के संबंधों को मजबूत करने की भरपूर संभावनाएं हैं. प्रधानमंत्री मोदी के मॉस्को से सीधे वियना जाने के कुछ और मायने भी हैं. प्रोफेसर सचदेवा का कहना है कि ऑस्ट्रिया के साथ, “संबंध पिछले कुछ सालों में आगे बढ़े हैं. मॉस्को के बाद एक गैर नाटो, निष्पक्ष यूरोपीय संघ के देश की यात्रा उपयोगी साबित हुई है. इससे यूरोपीय संघ की जमीन पर रूस की निंदा किए बगैर, भारत शांति और कूटनीति का बयान प्रचारित कर सका” ऑस्ट्रिया में इस वक्त एक दक्षिणपंथी पार्टी की सरकार है और विश्लेषक इस नजरिये से भी इस मुलाकात को देख रहे हैं. यूरोपीय संघ में भारत फ्रांस के काफी करीब रहा है. इसके बाद पोलैंड और इटली जैसे देशों के बाद ऑस्ट्रिया की तरफ जाने के राजनीतिक निहितार्थों और एजेंडे पर सवाल उठना लाजिमी भी है. इन तीनों ही देशों में फिलहाल दक्षिणपंथी पार्टियों की सरकारें हैं. हालांकि कारोबार और तकनीकी क्षेत्र में सहयोग को लेकर भारत और ऑस्ट्रिया ने इस दौरे से बड़ी उम्मीदें लगा रखी हैं.
चाकारोवा ने डीडब्ल्यू से कहा, “यह दौरा ऐसे वक्त में हो रहा है जब दोनों देश कूटनीतिक, आर्थिक, कारोबार और राजनीति में सहयोग के महत्वपूर्ण मौकों का फायदा उठा सकते हैं. तकनीक और रिसर्च के क्षेत्र में सहयोग के अलावा जल और कचरा प्रबंधन, वाहन निर्माण, बुनियादी ढांचे के निर्माण में दोनों देशों के सहयोग के कई आयाम विकसित हो सकते हैं” चाकारोवा ने यह भी कहा कि इन क्षेत्रों में सहयोग दोनों देशों को लंबे समय के लिए फायदे दे सकता है, “यह दौरा सिर्फ औपचारिक ना होकर कामकाजी साझेदारी का एक अहम पड़ाव है” भारत और ऑस्ट्रिया का कारोबारी संबंध भारत ऑस्ट्रिया से कृत्रिम रेशे, गाड़ियों के कलपुर्जे और फ्लेवर्ड वाटर के अलावा कई तरह की सेवाओं का आयात करता है. इसी तरह ऑस्ट्रिया भारत से मोटरसाइकिल और साइकिलें, प्रसारण के उपकरण और प्रिंटेड सर्किट बोर्ड आयात करता है. दोनों देशों का आपसी कारोबार बीते पांच सालों में औसत लगभग 40 फीसदी की दर से बढ़ रहा है. आने वाले वर्षों में इसके और तेजी से बढ़ने के आसार हैं, इस दौरे से इसे और मजबूती मिलेगी.
प्रोफेसर सचदेवा कहते हैं, “भारत ने ऑस्ट्रिया को तकनीकी सहयोग में एक प्रमुख सहयोगी के रूप में पहचाना है, जिसमें ध्यान स्टार्ट अप, डिजिटल इकोनॉमी, अंतरिक्ष, एआई (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) और बुनियादी ढांचा के साथ ही पीने के पानी और कचरा प्रबंधन पर भी है” भारत और ऑस्ट्रिया का कूटनीतिक संबंध भले ही 75 साल पुराना और दोस्ताना रहा है लेकिन इसकी ओर बहुत ध्यान नहीं दिया गया है. इस बार प्रधानमंत्री के दौरे में उनके साथ विदेश मंत्री एस जयशंकर और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल भी थे. चाकारोवा का कहना है, “जी 20 की बैठक में घोषित इंडिया मिडिल ईस्ट यूरोप कॉरिडोर जैसी भारत की महत्वाकांक्षी परिवहन परियोजनाओं के साथ ही भारत और यूरोपीय संघ के बीच संभावित मुक्त व्यापार समझौते ऑस्ट्रियाई कारोबार और निवेश के लिए अहम मौका साबित हो सकते हैं” खासतौर से ग्रीन टेक्नोलॉजी, ऑटोमेशन, अक्षय ऊर्जा, और परिवहन के बुनियादी ढांचे के क्षेत्र में. ऑस्ट्रिया और भारत में ज्यादा जरूरतमंद कौन आपसी संबंधों को मजबूत करने में दोनों देशों के रणनीतिक हितों की ओर ध्यान दें तो मामला थोड़ा जटिल है.
भारत के पास पश्चिमी और पूर्वी ताकतों के साथ रिश्ते मजबूत करने और उन्हें बनाए रखने की काबिलियत है. यूक्रेन पर रूसी हमले के दौर में जिस तरह से भारत यूरोप और अमेरिका के साथ अपने संबंधों को निभा रहा है, वह कोई मामूली चुनौती नहीं है. इन सबके बीच स्वतंत्र विदेश नीति पर डटे रह कर भारत ने बड़ी कूटनीतिक सफलता हासिल की है. दूसरी तरफ ऑस्ट्रिया एक छोटे स्तर का मुख्य रूप से निर्यात केंद्रित देश है. उसके पास भारत जैसे तेजी से विकास करते देश के साथ अंतरराष्ट्रीय संबंधों को गहरा और बहुआयामी बनाने के पर्याप्त कारण मौजूद हैं. भूराजनीति और अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के उभरते दिग्गज भारत से रिश्तों का मजबूत होना ऑस्ट्रिया के लिए आर्थिक और तकनीक के क्षेत्र में तेज विकास के मार्ग खोलेगा. इसके साथ ही अंतरराष्ट्रीय संबंधों में भी वह इसके फायदे भुना सकता है. चाकारोवा का कहना है, “यूरोपीय निष्पक्ष देश के तौर पर अनोखी स्थिति में होने और यूक्रेन युद्ध की शुरुआत में मॉस्को का दौरा करने के बाद भी ऑस्ट्रिया के पास भूराजनीति और अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में भारत जैसा प्रभाव नहीं है. फायदा दोनों देशों को होगा लेकिन निर्यात पर निर्भर ऑस्ट्रिया को वैश्विक कूटनीति और अर्थव्यवस्था में विस्तार के लिए शायद इसकी ज्यादा जरूरत है”.