नई दिल्ली : सूडान में गृहयुद्ध छिड़े हफ्तेभर से ज्यादा समय हो चुका है. इस बीच रैपिड सपोर्ट फोर्स ने खारतूम की नेशनल पब्लिक हेल्थ लैब पर कब्जा कर लिया. ये वो लैब है, जहां खतरनाक बीमारियों के वायरस और बैक्टीरिया रखे हुए हैं. फोर्स ने लैब तक पहुंचने के सारे रास्ते बंद कर दिए. इस बीच वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन ने डर जताया है कि शायद लैब में घातक जीवाणु बम तैयार होने लगें. इससे सूडान की लड़ाई दुनियाभर में बायोलॉजिकल युद्ध में बदल सकती है. इसे लेकर पहले भी वैज्ञानिक चेताते रहे हैं.
9/11 के बाद एंथ्रेक्स अटैक
सितंबर 2001 को न्यूयॉर्क में हुए आतंकी हमले के बाद वहां जैविक हमला भी हुआ था. कई पत्रकारों और नेताओं को ऐसी चिट्ठियां और कागजात मिले, जिन्हें छूने के बाद वे बीमार पड़ने लगे. बाद में पता लगा कि उनमें एंथ्रेक्स नाम के खतरनाक बैक्टीरिया भी थे. कुछ ही दिनों बाद भारत में भी पोस्टल डिपार्टमेंट में 17 ऐसी संदिग्ध चिट्ठियां पहुंची. लिफाफे में सफेद पाउडर लगा हुआ था. लेकिन जांच पर पता लगा कि किसी ने डराने के लिए ऐसा मजाक किया था. हालांकि इसके बाद से जैविक हमले पर खूब बात होने लगी.
क्या है जैविक हमला?
मकसद इसका भी वही होता है, दुश्मन देश या लोगों को मारना या कमजोर बना देना. बस, इसमें हथियारों का रूप बदल जाता है. तोप, गोला-बारूद की बजाए जानलेना बैक्टीरिया, वायरस या फंगस का इस्तेमाल होता है. कई बार ये पीने के पानी के स्त्रोत में मिला दिए जाते हैं, तो कभी किसी और तरह से इन्हें लोगों तक पहुंचाया जाता है. इससे खून बहे बिना ही लोग बीमारियों से मरने लगते हैं. अक्सर इसका असर आने वाली कई पीढ़ियों तक देखा जा सकता है.
कब हुई इसकी शुरुआत?
जैविक हथियारों का इस्तेमाल कब से शुरू हुआ, इसका कोई पुख्ता प्रमाण नहीं मिलता, लेकिन सबसे पहला रिकॉर्डेड मामला साल 1347 में आया था. तब मंगोल सेना ने यूरोप को तहस-नहस करने के लिए व्यापार के लिए आए जहाजों में प्लेग के जीवाणु और प्लेग-संक्रमित चूहे डाल दिए थे. ये जहाज जब इटली के सिसली बंदरगाह पर जाकर लगा, जहाज में लगभग सारे लोग मारे जा चुके थे. जो जिंदा थे, वे जल्द ही तेज बुखार, खून की उल्टियां करने लगे.
मौत लाने वाले जहाज कहलाए
कुछ ही दिनों में बीमारी सिसली से होते हुए पूरे देश और फिर स्पेन, इंग्लैंड, फ्रांस, ऑस्ट्रिया, हंगरी, स्विट्जरलैंड, जर्मनी, स्कैन्डिनेविया और बॉल्टिक पहुंच चुकी थी. मौतों का ठीक आंकड़ा अब तक बताया नहीं जा सका लेकिन माना जाता है कि इसकी वजह से एक तिहाई यूरोपियन आबादी की मौत हो गई. बाद में उन जहाजों को डेथ शिप कहा गया.
क्या हुआ था पहले वर्ल्ड वॉर में?
इसके बाद भी जैविक हमले की छुटपुट घटनाएं होती रहीं, लेकिन विश्व युद्धों ने इसका सबसे भयंकर चेहरा दिखाया. पहले वॉर के दौरान जर्मनी ने एंथ्रेक्स और हैजे से इंसानी आबादी को नुकसान पहुंचाने की कोशिश की. वे इससे संक्रमित लाशों को दुश्मन देश के इलाके में फेंक दिया करते. जैसे ही कोई इनके संपर्क में आता, बीमारी फैल जाती. कथित तौर पर जर्मन सेना ने रूस के सेंट पीटर्सबर्ग में भारी तबाही मचानी शुरू कर दी थी, लेकिन रूस ने बहुत सख्ती से इसे संभाल लिया. इसके बाद फसलों पर फंगस अटैक होने लगा. यहां तक कि जानवरों तक पर जैविक हमले होने लगे.
रोक लगाने की हुई कोशिश
युद्ध खत्म होने के बाद साल 1925 जेनेवा प्रोटोकॉल बना, जिस पर तभी एक-दो नहीं, कुल 108 देशों में दस्तखत किए. इसका मकसद था, कि आने वाले समय में कभी भी जैविक या फिर केमिकल युद्ध न छिड़े. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. साइन करने वालों में जापान भी शामिल था, लेकिन दूसरे विश्व युद्ध के दौरान उसने प्रोटोकॉल की धज्जियां उड़ाते हुए बेहद बर्बर जैविक प्रयोग किए.
इंपीरियल आर्मी की यूनिट 731
साल 1937 से लेकर 1945 के बीच जापान ने एक यूनिट तैयार की. पहले कहा गया कि उसका काम बीमारियों पर रिसर्च है, लेकिन जल्द ही एजेंडा सामने आया. जापान की इंपीरियल आर्मी ने चीन के सैनिकों और नागरिकों पर क्रूर प्रयोग शुरू कर दिए. वो बंदी बनाए लोगों के भीतर एंथ्रेक्स, टायफस, पॉक्स, हैजा और हेपेटाइटिस जैसी जानलेवा बीमारियों के जर्म्स डालती और मरने के लिए छोड़ देती. प्रेग्नेंट महिलाओं तक को नहीं बख्शा गया. उनके भीतर भी घातक बैक्टीरिया डालकर ये देखा गया कि शिशु के साथ क्या होता है. एक्सपेरिमेंट करने वाली सेना की टुकड़ी को यूनिट 731 कहा गया.
साल 1940 के अक्टूबर में जापानी विमानों ने एक चीनी गांव कुजाव पर बमबारी की, जिसमें क्ले बम के भीतर हजारों संक्रमित पिस्सू थे. इसके बाद गांव का हरेक व्यक्ति प्लेग का से मारा गया.
अब भी सामने नहीं आए सारे दस्तावेज
नब्बे के आखिर में पहली बार जापान ने माना था कि उसकी एक यूनिट ने चीन के लोगों पर बर्बर प्रयोग किए लेकिन उन प्रयोगों के बारे में तब भी कोई जानकारी नहीं दी गई. इसके बाद अपने ही लोगों के दबाव में आकर जापान के पुरालेख विभाग ने कुछ दस्तावेज निकाले. इनमें हजार से भी ज्यादा जापानी डॉक्टरों, नर्सों, सर्जन्स और इंजीनियरों का जिक्र है, जिन्होंने चीन के जिंदा लोगों को अपने खतरनाक और जानलेवा प्रयोगों का हिस्सा बनाया.
किस देश के पास कौन सा बायो वेपन?
जापान ही नहीं, कई देश गुपचुप जैविक हथियार बना चुके थे और मौके का इंतजार कर रहे थे. अमेरिका के बेलॉर कॉलेज ऑफ मेडिसिन के मुताबिक, उस दौरान जर्मनी के पास सबसे ज्यादा बायो वेपन थे. कनाडा के पास जानवरों और फसलों को बीमार करने वाले हथियार रेडी-टू-अटैक थे. सोवियत संघ के पास टायफस और प्लेग के जीवाणु तैयार थे, जबकि अमेरिका एंथ्रेक्स के अलावा केमिकल वॉर की तैयारी में था.
दोबारा हुई सख्ती
दूसरे विश्व युद्ध की बर्बरता देखने के बाद एक फिर देश साथ आए. साल 1949 में जेनेवा प्रोटोकॉल में कई संशोधन हुए. इस बार केमिकल वेपन को भी प्रतिबंधों की लिस्ट में डाला गया. सत्तर के दशक में बायोलॉजिकल वेपन कन्वेंशन (BWC) बना, जिसका मकसद किसी भी लड़ाई की स्थिति में जैविक हथियारों के इस्तेमाल को टालना था. फिलहाल भारत समेत 180 से ज्यादा देश इसपर दस्तखत कर चुके, लेकिन माना जाता है कि लगभग हर देश खुफिया तरीके से बायो वेपन पर काम कर रहा होगा.
खुफिया तरीके से बन जाते हैं ये वेपन
कोई देश बायोलॉजिकल हथियार बना रहा है, इसका पता लगाना मुश्किल भी है. कई तरह की लैब्स होती हैं, जहां प्रयोग चलते रहते हैं. वहां घातक वायरस, बैक्टीरिया भी होते हैं. देश बीमारियों के वैक्सीन बनाने या रिसर्च की आड़ में जैविक हमले की तैयारी कर सकता है. ये परमाणु हथियारों की तरह महंगे भी नहीं हैं कि कमजोर देश खर्च न उठा सकें. BWC के पास फिलहाल ऐसा कोई तरीका नहीं, जिसमें वो देशों की पड़ताल कर सके कि उनकी लैब्स में क्या चल रहा है.
भारत कितना तैयार है?
नब्बे के दशक के आखिर से भारत बायोटैरर अटैक की बात करने लगा. चूंकि हमने साल 1972 में यूनाइटेड नेशन्स बायोलॉजिकल एंड टॉक्सिन वेपन्स कन्वेंशन पर साइन किए हैं तो हम अलग से कोई बायोवेपन प्रोग्राम नहीं चला रहे. हालांकि सेना और डिफेंस लैब के पास इसकी पूरी तैयारी रहती है कि जैविक हमले की स्थिति में कैसे बचा जाए. नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी के पास भी बायो अटैक को फेल करने की जानकारी रहती है, ऐसा माना जाता है.