पिछले दिनों अखबारों में छपी एक खबर पर नजर पड़ी। खबर थी अखिल भारत हिंदू महासभा द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ वाराणसी से देश की पहली किन्नर महामंडलेश्वर हिमांगी सखी को चुनाव मैदान में उतारा गया। करीब 10 दिन बाद ही हिंदू महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष चक्रपाणि महाराज ने सोशल मीडिया पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सम्मान में हिमांगी सखी की प्रत्याशिता वाराणसी से वापस लेने वाली एक पोस्ट वायरल की। नरेंद्र मोदी के खिलाफ अखिल भारत हिंदू महासभा द्वारा प्रत्याशी खड़ा करने का निर्णय तो सामान्य था लेकिन प्रत्याशिता वापस लेने की पोस्ट खास महसूस हुई। आप सोचेंगे इसमें खास क्या है? खासियत जानने के लिए लौटना होगा इतिहास की ओर।
इसकी तह में पहुंचने के लिए अखिल भारत हिंदू महासभा का इतिहास जान लेना जरूरी है। वैसे तो हिंदू महासभा 1915 में महामना मदन मोहन मालवीय के नेतृत्व में स्थापित हुई। तीन तैयारी सत्रों (हरिद्वार, लखनऊ और दिल्ली) के बाद अप्रैल 1915 में राजा मणींद्र चंद्र नाथ महासभा के प्रथम अध्यक्ष बने। कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच हुए समझौते और 1926 में प्रांतों के प्रथम निर्वाचन में मुसलमान के लिए विशेष क्षेत्र रिजर्व किए जाने का भी महासभा ने ही तीव्र विरोध किया। 1937 में वीर सावरकर के अध्यक्ष बनने के बाद महासभा हिंदू हितों के लिए खास तौर पर जानी-पहचानी जाने लगी।
नाथूराम गोडसे और वीर सावरकर पर महात्मा गांधी की हत्या के आरोप के बाद महासभा का राजनीतिक अस्तित्व खतरे में आ गया। महासभा के अध्यक्ष रह चुके श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ नाम से एक नया राजनीतिक दल बनाया। महासभा के अधिकतर नेता-कार्यकर्ता भारतीय जनसंघ में शामिल तो हो गए लेकिन हिंदुत्व के कई मुद्दे छोड़ दिए। इतिहास भी यही है कि जनसंघ ने मंदिरों खासकर काशी विश्वनाथ, राम जन्मभूमि और कृष्ण जन्मभूमि के पुनरुद्धार के लिए कभी कोई आंदोलन नहीं किया।
यहीं से हिंदू महासभा और भारतीय जनसंघ के बीच राजनीतिक मनमुटाव की शुरुआत भी हुई। जनसंघ ने हिंदू महासभा द्वारा उठाए गए कश्मीर में धारा 370 आदि मुद्दे तो अपने एजेंडे में शामिल किए लेकिन हिंदुओं का सैनिकीकरण, संस्कृत को राष्ट्रभाषा बनाने, ब्रिटिश राष्ट्रमंडल से संबंध विच्छेद, मंदिरों का पुनरुद्धार आदि मुद्दों को विवादित या गए जरूरी समझकर तिलांजल दे दी।
इसी वजह से हिंदू महासभा राजनीति के मैदान में भारतीय जनसंघ की मुखालफत करती रही। हिंदू महासभा ने 1967 के चौथे आम चुनाव के अपने घोषणा पत्र में यहां तक लिखा कि कम्युनिस्ट पार्टी और जनसंघ दोनों ही सत्ता लोलुप हैं और कांग्रेस के विरुद्ध देशभर में उभर रहे मानसिक क्षोभ का लाभ उठाने के लिए प्रयत्नशील। घोषणा पत्र की यह इबारत महत्वपूर्ण है-‘ जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी पश्चिमी ढंग के पूंजीवाद में विश्वास रखते हैं और उन दोनों के ही मन में भारत के हिंदू विरोधी तत्वों और पाकिस्तान के प्रति सदाशयता है क्योंकि वह धर्मनिरपेक्षता के पुरस्कर्ता हैं।
पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ विपक्षी एकता के विघटन के बाद जनसंघ की जगह भाजपा का जन्म हुआ। भाजपा ने महासभा के हिंदू मंदिरों के पुनरुद्धार के मुद्दे को अपना चुनावी एजेंडा बनाया और प्रधानमंत्री मोदी ने इस एजेंडे को अंजाम तक पहुंचाया। मंदिरों का पुनरुद्धार एक तरह से हिंदू महासभा का ही मुद्दा था। महात्मा गांधी की हत्या के बाद महासभा से निकले जिन नेताओं और कार्यकर्ताओं ने जनसंघ को जन्म दिया उसी जनसंघ ने मंदिरों के पुनरुद्धार समेत हिंदू महासभा के कई मुद्दों को छोड़ दिया था।
यही वजह थी कि महासभा ने जनसंघ का कभी साथ नहीं दिया और राजनीतिक रूप से उसे कम्युनिस्ट की श्रेणी में ही खड़ा किया लेकिन भाजपा ने उसके इस प्रमुख एजेंडे को पूरा कर दिया। इसीलिए संभवत: हिंदू महासभा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ उतारे गए देश के पहले किन्नर महामंडलेश्वर हिमांगी सखी का नाम बतौर प्रत्याशी वापस लेने की घोषणा की है। हालांकि हिंदू महासभा के अभी कई ऐसे मुद्दे हैं, जिन्हें भारतीय जनता पार्टी से भी कोई तवज्जो नहीं मिली है। देखना होगा कि हिंदू महासभा के अन्य मुद्दों को लेकर भाजपा का भविष्य में क्या प्लान है? भाजपा उसके मुद्दों को लेकर आगे बढ़गी या सत्ता में बने रहने के लिए अपनी राजनीति का कोई नया एजेंडा तय करेगी।