‘सरकार की विदेश नीति विफल रही है. वो अपने घर में विफल रही है. देश मंदी में है. और ये ना समझा जाए कि मैं सिर्फ 73 सांसदों का प्रतिनिधित्व करने के लिए सदन में खड़ा हूं. कांग्रेस के पास जितनी वोटिंग स्ट्रेंथ है उससे ज्यादा मेरे पास है. चुनाव में 45.27 प्रतिशत वोट कांग्रेस को मिले थे. जबकि विपक्ष को 54.76 प्रतिशत. कम्यूनिस्ट भी हमारे साथ हैं. उन्हें भी इस सरकार पर भरोसा नहीं है. वो भी चाहते हैं कि सत्ता में बैठे लोग कुर्सी से उतरें.’
ये बयान था जेबी कृपलानी का, जो प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के सांसद थे. 1962 के युद्ध के बाद कृपलानी ने नेहरू सरकार के खिलाफ लोकसभा में अविश्वास प्रस्तवा पेश किया. एक साल पहले आम चुनाव हुए थे, जिनमें कांग्रेस पार्टी को चुनाव में 361 सीटें मिली थीं. यानी बहुमत से कहीं आगे. ये सब जानते थे कि अविश्वास प्रस्ताव ही गिरेगा, नेहरू सरकार नहीं. लेकिन तब भी आचार्य कृपलानी लोकसभा में ये प्रस्ताव लाकर रहे.
कट टू – 26 जुलाई, 2023. यानी आज. कांग्रेस पार्टी ने भी कुछ ऐसा ही किया. बीजेपी के पास बहुमत से कहीं ज्यादा नंबर है. लेकिन लोकसभा में मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया गया. स्पीकर ने प्रस्ताव स्वीकार भी कर लिया. माने मोदी सरकार को लोकसभा में चर्चा के बाद बहुमत साबित करना होगा. ठीक 1963 की तरह यहां कीवर्ड बहुमत नहीं, चर्चा है. विपक्ष की वर्किंग थ्योरी है, कि वो अविश्वास प्रस्ताव के बहाने प्रधानमंत्री को सदन में आने और बयान देने पर मजबूर कर सकती है.
और दूसरी तरफ है प्रधानमंत्री का पांच साल पुराना वो बयान जो सोशल मीडिया पर तैर रहा है. कि 2023 में भी आप इसी तरह प्रस्ताव लाएंगे. संकेत यही है, कि विपक्ष वास्तविकता से कट चुका है और अब उसके पास लकीरें पीटने के अलावा कोई काम नहीं बचा है. माने ज़िद का जवाब ज़िद. क्या इस ईगो टसल में अब भी मणिपुर की खैर लेने का स्कोप बाकी है. या फिर हम फिर हमारे माननीयों को मीम कॉन्टेंट जनरेट करते हुए देखेंगे. आप हंसिए मत. ये आपके लिए चिंता का विषय होना चाहिए. हम तो चिंता कर ही रहे हैं, इसीलिए आज की बड़ी खबर इसी सवाल को समर्पित है कि क्या अविश्वास प्रस्ताव को लेकर पक्ष और विपक्ष पर ज़रा भी विश्वास किया जा सकता है?
लोकसभा में कांग्रेस नेता गौरव गोगोई ने आज अविश्वास प्रस्ताव पेश किया. गौरव सदन में पार्टी के डिप्टी लीडर भी हैं. कांग्रेस के अलावा केसीआर की पार्टी भारत राष्ट्र समिति के सांसद नम नागेश्वर राव ने भी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया. DMK, TMC, NCP, JDU, उद्धव ठाकरे की शिवसेना और वाम दलों ने प्रस्ताव का समर्थन किया. और स्पीकर ने प्रस्ताव पर चर्चा की सहमति जता दी. यानी सरकार को अब लोकसभा में बहुमत सिद्ध करना होगा. चर्चा और वोटिंग नियम के मुताबिक 10 दिन के भीतर होगी. हालांकि स्पीकर ने अभी तक समय तय नहीं किया है.
क्या है अविश्वास प्रस्ताव?
इससे पहले कि अविश्वास प्रस्ताव की पॉलिटिक्स पर बात करें, पहले अविश्वास प्रस्ताव का क़ायदा समझ लीजिए. थ्योरी ये है, कि लोकसभा देश के लोगों की नुमांदगी करती है. क्योंकि वहीं चुने हुए प्रतिनिधि बैठते हैं. इसीलिए किसी भी सरकार के पास सदन का विश्वास होना चाहिए. उसके बिना सरकार राज करने का अधिकार खो देगी. इस थ्योरी को प्रैक्टिकल सिद्धांत के रूप में ढाला गया है. इसके तहत लोकसभा में किसी दल या गठबंधन के पास न्यूनतम 50 फीसदी से एक ज़्यादा सांसद होना चाहिए. माने कम से कम 273 सांसद होंगे, तभी सरकार चल सकती है.
विश्वास मत या अविश्वास प्रस्ताव की कार्यवाही इसी दावे का वेरिफिकेशन करती है. चुनाव बाद बहुमत साबित करने के लिए विश्वास मत सरकार ख़ुद लाती है. इसके बरअक्स, अविश्वास प्रस्ताव एक चैलेंज है, कि आप कह रहे हैं कि आपके पास बहुमत है, तो सदन में साबित करके दिखाएं. ज़ाहिर सी बात है, ये चैलेंज विपक्षी पार्टियां ही देती हैं. जैसे इस बार हुआ है.
रोचक बात ये है कि भारत के संविधान में अविश्वास प्रस्ताव या विश्वास मत का ज़िक्र नहीं है. संविधान के अनुच्छेद-118 के मुताबिक़, संसद के दोनों सदन कार्यवाही के लिए अपने-अपने नियम बना सकते हैं. इसी के तहत लोकसभा में नियम-198 है. नियम 198 के तहत, अविश्वास प्रस्ताव की व्यवस्था बनाई गई. एक बात और. विश्वास मत या अविश्वास प्रस्ताव सिर्फ़ लोकसभा में ही लाया जा सकता है. राज्यसभा में नहीं. वैसे ही राज्यों में ये दोनों प्रस्ताव सिर्फ विधानसभा में लाए जा सकते हैं, विधान परिषद में नहीं.
संविधान के अनुच्छेद 75 के मुताबिक़, कैबिनेट सामूहिक रूप से पूरे सदन के प्रति ज़िम्मेदार होता है. इसका मतलब ये हुआ कि सदन में मौजदू आधे से ज्यादा सांसद कैबिनेट और उसके लीडर के पक्ष में होने चाहिए.
अब प्रोसीजर भी समझ लें. आसान सी प्रक्रिया होती है. पहले कोई सांसद, स्पीकर को एक लिखित नोटिस देता है. फिर स्पीकर को इसे सदन में पढ़कर पूछना होता है कि कितने सांसद अविश्वास मत या विश्वास प्रस्ताव के पक्ष में हैं? अगर 50 सांसद कह दें कि वो अविश्वास प्रस्ताव के समर्थन में हैं, तो स्पीकर को अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा की मंज़ूरी देनी होती है. आज भी यही हुआ. विपक्ष के सांसदों ने इस पर हामी भर दी. अब इसके लिए एक तारीख़ तय की जाएगी. इसी तारीख़ पर चर्चा के बाद वोटिंग होगी है.
प्रोसेस हम सब समझ गए. अब इस सवाल पर आते हैं कि आखिर विपक्ष अभी ही अविश्वास प्रस्ताव क्यों लेकर आया. विपक्ष के सांसद खुलकर कह चुके हैं कि विपक्ष मणिपुर हिंसा पर संसद में प्रधानमंत्री का जवाब चाहता है. 20 जुलाई को जब संसद सत्र शुरू हुआ प्रधानमंत्री ने मणिपुर पर बयान दिया. लेकिन संसद के बाहर. लोकसभा में राजनाथ सिंह उप-नेता सदन की हैसियत से कह चुके हैं कि सरकार चर्चा के लिए तैयार है. जिनके विभाग से संबंधित सवाल है, माने गृहमंत्री अमित शाह, वो भी कह चुके हैं कि सरकार तैयार है. माने सरकार ने अपने पत्ते खोल दिए हैं. विपक्ष की समस्या ये है कि तकनीकी रूप से सरकार सही जा रही है. हां, उस रवायत से हटकर काम हो रहा है, जिसमें प्रधानमंत्री महत्वपूर्ण मुद्दों पर बयान देते थे. लेकिन जैसा कि दर्शक समझते ही हैं, परंपरा को तोड़ना और किसी नियम का टूटना दो अलग-अलग बातें हैं.
विपक्ष क्या कर सकता है?
विपक्ष सदन के भीतर सरकार को उन्हीं चीज़ों के लिए मजबूर कर सकता है, जहां नियमों की दुहाई दी जा सके. मिसाल के लिए विपक्ष ने राज्यसभा में रूल 267 के तहत भी लंबी चर्चा की मांग की. इसकी मंज़ूरी नहीं मिली, लेकिन सरकार ने नियम की काट के लिए नियम का ही इस्तेमाल किया. सरकार के सलाहकार ये जानते हैं कि नियम 267 को लोकसभा के स्थगन प्रस्ताव की तरह इस्तेमाल नहीं किया जा सकता. कम से कम परंपरा तो यही है. इसीलिए सरकार ने हामी नहीं भरी. और कहा कि रूल 176 के तहत शॉर्ट टर्म चर्चा संभव है, जिसमें ढाई घंटे का समय मिलता है. यहां भी सरकार का संकेत यही था कि संबंधित विभाग के मंत्री जवाब देंगे. माने गृहमंत्री अमित शाह, न कि प्रधानमंत्री.
इसीलिए विपक्ष के पास प्रधानमंत्री को सदन में खींचकर लाने का सिर्फ एक रास्ता बचा था – अविश्वास प्रस्ताव. जिस तरह मैदान में टीम के साथ कप्तान जाता ही है. उसी तरह अविश्वास प्रस्ताव पर जब चर्चा होती है तो प्रधानमंत्री को सरकार का पक्ष रखने के लिए सदन में भाषण देना होता है. विपक्ष मानकर चल रहा है कि ऐसे में प्रधानमंत्री को मणिपुर पर कुछ न कुछ बोलना पड़ेगा और वो संसद के रिकॉर्ड में दर्ज भी होगा. चूंकि अविश्वास प्रस्ताव एक बड़ा न्यूज़ ईवेंट होता है, विपक्ष को अपनी बात रखने और प्रधानमंत्री को घेरने के लिए मीडिया का मंच भी सुलभ हो जाएगा.
लेकिन कहानी सिर्फ इतनी भर नहीं है. राजनीति में सबकुछ मैसेजिंग का खेल है. और विपक्ष इस समय यही कर रहा है. पुराने विपक्षी मोर्चा के नए नामकरण INDIA होने के बाद विपक्षी दल चाहते हैं कि असल में पता चले कि कौन किसकी तरफ है. जो कसमे वादे बेंगलुरु और पटना में किए गए थे, धरातल पर उनमें कितनी सच्चाई है.
कितना मजबूत है विपक्ष?
बात नंबरों की है. ट्रेजरी बेंच के पास कितने नंबर हैं और विपक्ष कहां टिकता है. क्योंकि 2019 के चुनाव के बाद कोई मेजर चेंज नहीं हुआ लेकिन छुटपुट बदलाव जरूर हुए हैं. तो पहले आप लोकसभा का गणित समझ लीजिए. अगर अंकगणित की बात करें, तो लेकसभा में भारतीय जनता पार्टी की भरपूर बहुमत है. 545 में 301 सीटें. जो ग्राफ़िक-चार्ट हमने बनाया है, उसमें भगवा माने भाजपा. तो आपको साफ़ दिख ही रहा होगा.
- दूसरी बड़ी पार्टी है, कांग्रेस: 50 सीटों के साथ.
- तीसरी पार्टी द्रविड़ मुनेत्र कड़गम – 24 सीटें.
- चौथी, त्रिणमूल कांग्रेस – 23 सीटें.
- पांचवी, युवजन श्रमिका रायथू कांग्रेस पार्टी – 22.
यानी इस बात में दो राय नहीं है कि मोदी सरकार को इस अविश्वास प्रस्ताव से तो कोई खतरा नहीं है. वैसे ये पहली बार नहीं है जब नरेंद्र मोदी सरकार लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव का सामना कर रही हो. नरेंद्र मोदी के नौ सालों में ये दूसरा अविश्वास प्रस्ताव है. इससे पहले 2018 में तेलुगु देशम पार्टी ने प्रस्ताव पेश किया था. TDP, जो कुछ दिन पहले तक NDA का ही हिस्सा थी, कहने लगी कि मोदी सरकार ने आंध्र प्रदेश को पर्याप्त सहायता नहीं दी. बाकी विपक्षी पार्टियां तो स्वाभाविक रूप से इस प्रस्ताव के समर्थन में आईं. awkward स्थिति हुई YSR कांग्रेस की, जो आम तौर पर केंद्र के साथ एक non confrontational रिश्ता रखती है. लेकिन आंध्र का सवाल था, तो जगन ने कोई रिस्क नहीं लिया. और वो भी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लेकर आ गए. तब सुमित्रा महाजन लोकसभा अध्यक्ष थीं, जिन्होंने प्रस्ताव को स्वीकार किया. 135 सदस्यों ने सरकार के ख़िलाफ़ वोट किया और 330 सांसदों ने समर्थन में. माने मुकाबला डेड था. लेकिन जनता को मज़ा बहुत आया.
अपनी बात पूरी करने के बाद, राहुल ने वो किया था, जिसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी. वो ट्रेज़री बेंच की ओर गए और प्रधानमंत्री मोदी को गले लगा लिया. इस दौरान प्रधानमंत्री बड़े असहज दिखे. वैसे जब वो बोलने खड़े हुए, तो उन्होंने राहुल के तंज़ का खूब जवाब दिया.
वैसे यहां लाख का सवाल ये है कि जिस आंध्र के नाम पर अविश्वास प्रस्ताव लाया गया था, उसका उल्लेख चर्चा के दौरान कितना हुआ? क्या विपक्ष की दलीलों में वो नज़र आया? क्या सरकार के जवाब आंध्र और पूरे देश को भरोसे में लेने के मकसद से दिये गए थे? या विपक्ष के आरोपों के जवाब भर थे. सब हम ही क्यों बताएं, थोड़ा आप भी गूगल कीजिए. ताकि आप अनुमान लगा सकें कि हालिया कवायद के केंद्र में मणिपुर है या नहीं. हम गलत साबित हुए, तो हमें वाकई खुशी होगी.
सारी बातें तो हो ही गईं अब कुछ ट्रिविया लेते जाइए. आज़ादी के बाद से अब तक कुल 27 अविश्वास प्रस्ताव लाए गए हैं. इनमें से 15 केवल इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ थे. और, उन्होंने पंद्रहों से पार पा लिया. इंदिरा से पहले जवाहरलाल नेहरू के ख़िलाफ़ दो और इंदिरा के बाद मोरारजी देसाई के ख़िलाफ़ ये प्रस्ताव आया था. जो वो हार गए थे. इतिहास में ज़्यादातर अविश्वास प्रस्ताव फ़ेल ही हुए हैं. सिवाय दो के. 1979 – मोरारजी देसाई सरकार के ख़िलाफ़ और, 1999 में अटल बिहारी वाजपई के ख़िलाफ़. दोनों सरकारें गिर गई थीं. वाजपई के ख़िलाफ़ 2003 में भी तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी अविश्वास प्रस्ताव लाई थीं, जो बेनतीजा रही.
जाते-जाते आपको आपको नेहरू का एक जवाब सुनाए जाते हैं. आचार्य कृपलानी के लाए देश के पहले अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान नेहरू ने कहा था-
“अमूमन अविश्वास प्रस्ताव किसी पार्टी को सत्ता से हटाने के लिए लाया जाता है. लेकिन ये स्पष्ट है कि अभी इस प्रस्ताव का उद्देश्य सरकार गिराने का नहीं था. हालांकि, बहस कई मायनों में दिलचस्प थी और, लेकिन वास्तविकता से थोड़ा दूर जरूर दिखी. व्यक्तिगत रूप से, मैंने इस प्रस्ताव और इस बहस का स्वागत किया है. मुझे लगा कि यदि हम समय-समय पर इस तरह के परीक्षण पर बात करते रहें तो यह अच्छा होगा.”