अशोक भाटिया
पूर्व उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट के साथ राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत दोनों ने सार्वजनिक मंचों पर कहा है कि दोनों के बीच कोई समस्या नहीं है, लगभग उतनी ही बार, जितनी बार उन्होंने एक-दूसरे को निशाना बनाया है. पिछले इतिहास को खंगाला जाए तो 200 सदस्यीय सदन में 21 सीटों पर सिमट जाने के बाद से पार्टी को विधानसभा की जीत तक ले जाने के बाद, दिसंबर 2018 के चुनावों के बाद पायलट को मुख्यमंत्री पद का स्वाभाविक दावेदार माना जा रहा था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. गहलोत गांधी परिवार के विश्वास को अपने पक्ष में कैसे झुकाने में कामयाब रहे, इसके बारे में कई कहानियां हैं, जिनमें से किसी की भी पुष्टि नहीं की जा सकी है.
लेकिन जब से गहलोत के डिप्टी के रूप में पायलट ने शपथ ली, उसके एक साल बाद तक, उन्होंने राज्य की राजनीति में खुद को कभी भी कम महत्वपूर्ण नहीं माना और अपने सार्वजनिक बयानों से सरकार को कटघरे में खड़ा किया. राजभवन में जब गहलोत के मंत्रिमंडल ने शपथ ली तो परंपरा से हटकर मंच पर पायलट के लिए भी एक कुर्सी रखी गई. आमतौर पर केवल राज्यपाल और मुख्यमंत्री ही इस स्थान पर बैठते हैं.
गहलोत और पायलट दोनों ने कई मौकों पर एक-दूसरे का नाम लिए बिना एक-दूसरे के खिलाफ टिप्पणियां की हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद, सीएम ने कहा कि पायलट को हार की जिम्मेदारी लेनी चाहिए. पार्टी सभी 25 सीटें हार गई. पायलट ने कहा कि अकेले जोधपुर में ज्यादा समय बिताने के बजाय यदि मुख्यमंत्री पूरे राज्य में प्रचार करते तो परिणाम कुछ और हो सकते थे. अन्य सभी अवसरों पर, जब गहलोत जोर देने के लिए कुछ कहते हैं कि राज्य के लोग और पार्टी के सभी विधायक उन्हें सीएम के रूप में देखना चाहते हैं, जैसे कि इसे रगड़ने के लिए, पायलट समान रूप से प्रतिकार करते हैं.
पिछले लोकसभा चुनाव के प्रचार के लिए जयपुर के रामलीला मैदान में राहुल गांधी की रैली में फोटो-ऑप को कौन भूल सकता है जब पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष ने दोनों नेताओं को एक-दूसरे को गले लगाया था? हाल ही में, कोटा के एक सरकारी अस्पताल में 100 से अधिक शिशुओं की मृत्यु के बाद, पायलट ने अपनी ही सरकार को गिराने में कोई समय नहीं गंवाया, यह कहते हुए कि सरकार को संकट से निपटने में अधिक मानवीय होना चाहिए था, जाहिर तौर पर मुख्यमंत्री के उस बयान का जिक्र था जिसमें उन्होंने मौतों की बात कही थी होता है. पायलट, जो स्वास्थ्य मंत्री रघु शर्मा के कोटा जाने के एक दिन बाद अस्पताल गए थे, को अपने तत्काल प्रेसर के साथ राष्ट्रीय टीवी पर प्राइमटाइम एयर-टाइम मिला.
ऐसा नहीं कि कांग्रेस आलाकमान को इस सास-बहु की लड़ाई को लेकर पता नहीं है पर हर बार विवाद निपटाने के बाद दोबारा गाड़ी पटरी से उतर जाती है. चुनावी साल में कांग्रेस हाईकमान अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच रिश्ते सुधारने की आखिरी कवायद कर रही है. अगर दोनों गुटों में बात नहीं बनती है तो हाईकमान चुनाव से पहले बड़ा फैसला ले सकता है.हालांकि, मीटिंग से पहले सुखजिंदर रंधावा ने सब कुछ सही होने की उम्मीद जताई है. प्रभारी सुखजिंदर रंधावा और प्रदेश अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा के साथ ही दोनों नेताओं को दिल्ली बुलाया गया है. दिल्ली में सचिन पायलट और अशोक गहलोत के साथ कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे और राहुल गांधी बातचीत करेंगे.
पायलट मीटिंग में मुख्यमंत्री बदलने की अपनी पुरानी मांग दोहरा सकते हैं. हाल ही में पायलट ने सरकार के सामने 3 शर्तें रखी थी, जिस पर गहलोत ने तंज कसा था. पायलट-गहलोत का विवाद 30 महीना पुराना है और इसे सुलझाने में कांग्रेस के 2 महासचिवों की कुर्सी चली गई.ऐसे में सियासी गलियारों में सवाल है कि खरगे के पास अब क्या विकल्प हैं, जिस पर पायलट और गहलोत दोनों मान जाए? अगर खरगे की इस मैराथन मीटिंग में भी बात नहीं बनी तो सचिन पायलट क्या करेंगे?
वैसे देखा जाय तो राजस्थान कांग्रेस के विवाद में पायलट की दलीलें मजबूत हैं, जबकि अशोक गहलोत के पास संख्याबल है. गहलोत के पास मजबूत संख्याबल होने की वजह से हाईकमान भी स्वतंत्र फैसला नहीं कर पा रहा है. राहुल गांधी भी दोनों को पार्टी की संपत्ति बताकर विवाद से पल्ला झाड़ चुके हैं.
पायलट गुट के करीबियों का कहना है कि कांग्रेस हाईकमान खासकर राहुल गांधी ने चुनावी साल में मुख्यमंत्री बनाने का वादा किया था, जिसे हाईकमान ने अब तक पूरा नहीं किया. पूरा करने के लिए कई प्रयास भी हुए, लेकिन बात नहीं बन पाई. 25 सितंबर 2022 को कांग्रेस हाईकमान ने ‘वन लाइन रेज्योलूशन’ पास कराने के लिए जयपुर में बैठक आयोजित की थी, लेकिन इस बैठक का गहलोत समर्थक 89 विधायकों ने बहिष्कार कर दिया. इस प्रकरण पर गहलोत ने माफी मांगी पर बागी नेताओं पर कार्रवाई नहीं हुई. सचिन पायलट गुट का कहना है कि वसुंधरा सरकार के जिस भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़कर सरकार में आए, उस पर अशोक गहलोत ने कोई कार्रवाई नहीं की. इससे जनता में कांग्रेस की क्रेडिबलिटी खराब हो रही है. कांग्रेस ने खनन घोटाला, कालीन चोरी जैसे कई आरोप वसुंधरा सरकार में लगाए थे.
जुलाई 2020 में सचिन पायलट अपने साथ 20 विधायकों को लेकर हरियाणा के मानेसर चले गए. उस वक्त गहलोत सरकार के गिरने की भविष्यवाणी की जा रही थी, लेकिन गहलोत ने मैनेजमेंट कर 102 विधायक जुगाड़ लिए. सरकार बनाने के लिए 101 विधायकों की ही जरूरत पड़ती है. सितंबर 2022 को कांग्रेस ने एक लाइन का प्रस्ताव पास कराने के लिए मल्लिकार्जुन खरगे और अजय माकन को ऑब्जर्वर बनाकर भेजा. यहां मीटिंग से पहले 89 विधायकों ने स्पीकर सीपी जोशी को इस्तीफा भेज दिया. कांग्रेस हाईकमान को बैठक रद्द करनी पड़ी.
वैसे सुलह के 3 फार्मूले हैं, लेकिन तीनों में पेंच हैं. कांग्रेस हाईकमान के पास पहला फॉर्मूला सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाने का है. राहुल गांधी के किए वादे को पूरा करते हुए पायलट को चुनावी साल में मुख्यमंत्री की कुर्सी देकर विवाद को शांत किया जा सकता है. हालांकि, सितंबर की घटना के बाद गहलोत से मुख्यमंत्री कुर्सी छिनना आसान नहीं है. गहलोत ने मुख्यमंत्री की कुर्सी को प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया है और किसी सूरत में उसे छोड़ना नहीं चाहते हैं. चूंकि अधिकांश विधायक भी गहलोत के साथ खड़े हैं.ऐसे में हाईकमान मुख्यमंत्री पद पायलट को देने की बात कर राजस्थान में और किरकिरी नहीं करवाना चाहेगा.
सचिन पायलट को साथ रखने के लिए हाईकमान के पास दूसरा बड़ा विकल्प पायलट के चेहरे को आगे कर चुनाव लड़ने का हो सकता है. ऐसे स्थिति में हाईकमान सचिन पायलट को यह कहकर साध सकता है कि आने वाला वक्त आपका है. हालांकि, इस ऑप्शन में भी कई पेंच हैं. अगर हाईकमान पायलट के नाम को आगे करती है, तो गहलोत के लिए राजनीतिक रास्ता बंद हो जाएगा. गहलोत ऐसी स्थिति कभी नहीं बनने देंगे. दूसरी तरफ पायलट गुट भी सरकार के एंटी इनकंबेंसी से डरा हुआ है.
कांग्रेस हाईकमान के पास दूसरा ऑप्शन गहलोत के चेहरे पर ही चुनाव लड़ने का है. हालांकि, इसकी संभावनाएं कम है. गहलोत के मुख्यमंत्री रहते पार्टी 2 बार चुनाव हार चुकी है. इसके अलावा गहलोत को अगर कांग्रेस आगे करती है तो गुर्जर समेत कई जातियों के वोट खिसक जाएंगे. 2018 के चुनाव में भाजपा की परंपरागत वोट बैंक माने जाने वाले गुर्जर समुदाय ने कांग्रेस के पक्ष में जमकर वोट किया था. राज्य में 30-40 सीटों पर गुर्जर समुदाय का प्रभाव है.
सियासी गलियारों में इस बात की सबसे अधिक चर्चा है कि सचिन पायलट की डिमांड अगर पूरी नहीं हुई तो अलग पार्टी बना सकते हैं. हालांकि, पायलट जिस तरह की रणनीति अपना रहे हैं, उससे यह काम तुरंत होने की उम्मीद कम है.पायलट करीबियों के मुताबिक अभी अशोक गहलोत और वसुंधरा राजे के गठजोड़ का खुलासा किया जाएगा. इनमें रिसर्जेंट राजस्थान घोटाला, खनन घोटाला प्रमुख है. दोनों घोटाले को लेकर अशोक गहलोत ने भी वसुंधरा राजे पर निशाना साधा था.
पायलट ने गहलोत सरकार को 31 मई तक का अल्टीमेटम भी दे रखा है. वहीं पायलट ने यह भी साफ कर दिया है कि वे कांग्रेस पार्टी नहीं छोड़ेंगे और पार्टी में रहकर ही लड़ाई लड़ेंगे. यानी पायलट का प्लान-बी तब शुरू होगा, जब हाईकमान कोई कार्रवाई करे. ऐसे में पायलट गुट को राजस्थान में भावनात्मक तौर पर फायदा मिल सकता है.
राजस्थान को लेकर बड़ा सवाल यही है कि सचिन पायलट अगर अलग रास्ते पर जाते हैं, तो क्या होगा? कांग्रेस और भाजपा भी इसी गुणा-गणित में लगी हुई है. पायलट 2013 चुनाव में कांग्रेस को मिली करारी हार के बाद राजस्थान के अध्यक्ष बनाकर दिल्ली से भेजे गए थे. इसके बाद पायलट राजस्थान में ही हैं. अध्यक्ष रहते पायलट ने वसुंधरा के गढ़ पूर्वी राजस्थान में मजबूत पकड़ बना लिया. पूर्वी राजस्थान के 8 जिले दौसा, करौली, भरतपुर, टोंक, जयपुर, अलवर, सवाई माधोपुर और धौलपुर में विधानसभा की कुल 58 सीटें हैं.
2013 के चुनाव में भाजपा ने यहां शानदार परफॉर्मेंस करते हुए 44 सीटें जीती थी, लेकिन पायलट ने 2018 में सेंध लगाते हुए भाजपा को 11 पर समेट दिया. कांग्रेस को 2018 में पूर्वी राजस्थान में 44 सीटें मिली थी. पायलट समर्थक अधिकांश विधायक इसी क्षेत्र से आते हैं.पायलट के अलग पार्टी बनाने से इन 58 सीटों पर भाजपा वर्सेज पायलट के बीच मुकाबला हो सकता है. इसके अलावा अजमेर, नागौर और बाड़मेर की करीब 20 सीटों पर भी पायलट का दबदबा है. इन इलाकों में भी पायलट कांग्रेस का खेल खराब कर सकते हैं.
वैसे कांग्रेस हाईकमान के लिए गहलोत-पायलट का विवाद नया नहीं है. 1996 में सोमेन मित्रा-ममता बनर्जी और 2009 में जगन रेड्डी-रोसैया के बीच ऐसा ही विवाद उलझा था. हाईकमान ने दोनों जगहों पर राजस्थान की तरह ही पहले यथास्थिति बनाए रखा और बाद में ऐसा फैसला लिया, जो बाद में गलत साबित हुआ. पंजाब विधानसभा चुनाव में कैप्टन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस अकालियों से सत्ता छीन लाई थी, लेकिन 2022 में पार्टी को एंटी इनकंबेसी का सामना करना पड़ा. साढ़े चार साल कैप्टन अमरिंदर सिंह प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे, अमरिंदर पर हमलावर रहे सिद्धू इस कारण बाद में चरणजीत चन्नी को मुख्यमंत्री कुर्सी मिली. उसके बाद कांग्रेस 18 सीट पर सिमट गई.