नई दिल्ली। सुभाष चंद्र बोस ने आजादी से चार साल पहले ही भारत की अस्थायी सरकार गठित कर दी थी। वह खुद इस सरका के प्रमुख थे। यही नहीं कई देशों ने इस सरकार को मान्यता भी दे दी थी। 21 अक्टूबर 1943 को नेताजी सुभाष ने सिंगापुर में भारत की अस्थायी सरकार की घोषणा कर दी थी। आजाद हिंद फौज के प्रणेता नेताजी सुभाष के नाम से भी अंग्रेज खौफ खाने लगे थे। इसलिए उनके खिलाफ चारों तरफ से साजिशें होने लगीं। उन्होंने विदेशी धरती पर ही भारत की आजादी की पूरी योजना तैयार कर दी थी।
आजाद हिंद फौज का गठन 1915 में राजा महेंद्र प्रताप सिंह, रास बिहारी बोस और निरंजन सिंह गिल ने की थी। इसका नाम आजाद हिंद की सेना था। जब इसकी कमान नेताजी सुभाष चंद्र बोस को सौंपी गई तो इसका नाम बदलकर आजाद हिंद फौज कर दिया गया। यह फौज इतनी उन्नत थी कि इसमें करीब 45 हजार सैनिक थे। इसकी एक महिला बटालियन भी थी। इसके अलावा आजाद हिंद फौज का एक बैंक भी हुआ करता था। इसकी मुद्रा और डाक टिकट तक था।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने जापान की दक्षिणी सेना के कमांडर फील्ड मार्शल हिसाएची तेरावची को बताया था कि वह भारत की अंग्रेजी सरकार पर हमला करने की योजना बना रहे हैं। इसके बाद भारत को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त करा लिया जाएगा। नेताजी ने कहा कि आईएनए के सैनिकों का नेतृत्व आजाद हिंद फौज करेगी क्योंकि इसमें भारतीय सैनिकों का आगे होना जरूरी है। सिंगापुर पर जापान का कब्जा होने के बाद करीब 60 हजार भारतीय आईएनए के साथ आ गए और ब्रिटिश सरकार के खिलाफ लड़ने को तैयार हो गए। इसकी एक वजह यह भी बताई जाती है कि उस समय जापान की जेलों में हालत बहुत खराब थी। ऐसे में वे जेल जाने की जगह लड़ना ज्यादा पसंद कर रहे थे।
21 अक्टूबर 1943 को जब नेताजी ने सिंगापुर में आजाद भारत की अस्थायी सरकार की घोषणा कर दी तो 10 से ज्यादा देशों ने इसको मान्यता भी दे दी। इसमें जापान, जर्मनी, इटली, क्रोएशिया, थाईलैंड, फिलीपीन्स और बर्मा शामिल था। सुभाष चंद्र बोस खुद इस सरकार के मुखिया थे। उन्होंने विदेश और युद्ध संबंधी प्रभार भी अपने पास सखे थे। हाल यह था कि बर्मा के एक रईस ने नेताजी की सेना को अपनी पूरी सेना दान में दे दी।
जापान की सेना ने जब कलकत्ता में बमबारी की तो नेताजी ने इसका कड़ा विरोध किया। 1944 आते-आते जापानी सैनिकों और आईएनए के सैनिकों में अनबन होने लगी। जापानी सैनिकों ने जब रसद की आपूर्ति रोक दी तो आईएनए के सैनिकों को भूखे रहना पड़ा। वे जंगल की घासफूस तक खाने को मजबूर हो गए। इम्फाल पहुंचते पहुंचते आईएनए की सेना का मनोबल टूटने लगा था। यहां से लौटने वाले सैनिक मात्र 2 हजार के करीब ही रह गए थे। बहुत सारे सैनिक मारे गए थे और बहुत सैनिकों को आत्मसमर्पण करना पड़ा था। बीमारी और भुखमरी से भी बहुत सारे सैनिकों की मौत हो गई थी।