अनिल तिवारी
पिछले 27 साल से अधर में झूल रहे राजनीति में महिलाओं की हिस्सेदारी विषयक विधेयक को संसद के दोनों सदनों ने पारित कर दिया है। सरकार द्वारा लाए गए नारी शक्ति वंदन अधिनियम के लोकसभा में भारी बहुमत तथा राज्यसभा में सर्वसम्मति से पारित होते ही लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण को कानूनी दर्जा हासिल हो गया है।
राजनीति में महिलाओं को आगे बढ़ाने के लिए यह विधेयक मील का पत्थर साबित हो सकता है, यह ठीक भी है और इस बात में दम भी है। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि अगर यह विधेयक समाज में स्त्री पुरुष बराबरी का लक्ष्य हासिल करने की गरज से लाया गया है तो आधी आबादी को तिहाई आरक्षण देने के निहितार्थ क्या है? लगभग 48.5% महिला आबादी के लिए 33% आरक्षण का फार्मूला कहां से आया?
महिला आरक्षण को लेकर भारत की घरेलू राजनीति तो अक्सर गरम रही, बाहरी दबाव के कारण भी इसे अब और अधिक दिन तक नहीं टाला जा सकता था। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा महिलाओं पर केंद्रित चार विश्व सम्मेलन आयोजित किए गए, जो क्रमशः 1975 में मेक्सिको में, 1980 में कोपेनहेगन में, 1985 में नैरोबी में और 1995 में बीजिंग में हुए। अंतिम सम्मेलन के दौरान बीजिंग घोषणा पत्र जारी किया गया और सभी सदस्य देशों से उस पर त्वरित कार्रवाई की अपेक्षा की गई। सम्मेलन में शामिल सभी 189 देशों द्वारा सर्वसम्मति से घोषणा पत्र को अपनाया गया और त्वरित कार्रवाई करने का वचन दिया गया। बीजिंग घोषणा पत्र में एक प्रमुख प्रावधान महिलाओं के लिए आरक्षण का भी था।
भारत में महिला आरक्षण की मांग पहले से ही चल रही थी। बीजिंग सम्मेलन के बाद भारत की सरकारों ने भी इसमें बढ़-चढ़कर रुचि दिखानी शुरू कर दी। यह अलग बात है कि जब भी सरकार ने महिला आरक्षण विधेयक को पास करने की कोशिश की तो उसे पिछड़ी जाति के नेताओं के विरोध का सामना करना पड़ा। पिछड़ी जाति के नेताओं ने इसे हमेशा संसद में उच्च जाति की साजिश के रूप में देखा। कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के दौरान भी यह विधेयक राज्यसभा में पेश हुआ लेकिन जब यह लोकसभा में पहुंचा तो मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और शरद यादव जैसे नेताओं ने अन्य पिछड़ा वर्ग की महिलाओं के लिए अलग कोटा इसमें नहीं होने की बात उठाते हुए इसका कड़ा विरोध किया था।
दरअसल, महिला आरक्षण का मकसद विधायिका में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाना है, इसलिए कुछ लोगों का विचार यह भी रहा है कि महिलाओं को आरक्षण के जरिए ही क्यों आगे आने का अवसर मिलना चाहिए, उन्हें अपने दम पर आगे आने का मौका देना चाहिए। इसलिए एक विचार यह भी आया कि राजनीतिक दल खुद अपने सांगठनिक ढांचे में एक तिहाई आरक्षण की व्यवस्था लागू करें। मगर हैरानी की बात है कि राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के सैद्धांतिक विचार का समर्थन तो सभी दल करते हैं, चुनावी सभाओं में हमेशा इसकी मांग सभी दोहराते हैं, मगर संगठन के स्तर पर इसे आगे बढ़ाता कोई नजर नहीं आता।
ऐसे विचार जब व्यावहारिक रूप लेते नहीं दिखे तो सिफारिश की गई कि लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित कर दी जाए। इसके लिए मसौदा भी तैयार किया गया। मसौदा तैयार करते समय भी आमतौर पर यह सवाल उभरा कि जब महिलाओं की आबादी 50% है तो 33 प्रतिशत आरक्षण का आधार क्या हो? तब मोटे तौर पर पूर्व में हुए कुछ अध्ययनों के निष्कर्ष को ध्यान में रखते हुए यह प्रतिशतता तय की गई।
पहला, एक अध्ययन में पाया गया कि किसी भी संस्थान में महिलाओं की मौजूदगी वहां की गुणवत्ता में सुधार लाती है। उदाहरण के लिए पुलिस जैसे संस्थानों में महिलाओं की बढ़ती संख्या पुलिस हिंसा को कम करने में कारगर साबित हुई है। भारी संख्या में महिला पुलिस होने के कारण खासकर महिलाओं और हाशिये पर रहने वाले दबे कुचले लोगों के बीच पुलिस के प्रति विश्वास बढ़ा है। इसी अध्ययन में यह भी निकल कर आया है कि किसी भी संस्था की कुल संख्या में महिलाओं की उपस्थिति अगर एक तिहाई से अधिक होने लगती है तो इसका प्रभाव संस्था पर सीधे तौर पर पड़ने लगता है। इसे ध्यान में रखते हुए महिलाओं की जनसंख्या 50% होने के बावजूद केवल 33% आरक्षण का प्रस्ताव मसौदे में किया गया।
दूसरा, राजनीति का क्षेत्र हो या फिर कोई अन्य संस्थान, सीट आरक्षित न होने की दशा में कुछ गिनी चुनी नाम मात्र की महिलाएं तो आगे बढ़ जाती हैं और कई बार लंबे समय तक पद पर काबिज रहती हैं। ऐसी महिलाएं अन्य महिलाओं के लिए बैरियर का काम करने लगती हैं। माना गया कि एक तिहाई आरक्षण से यह बैरियर भी टूटेगा।
तीसरा, संसद और विधानसभा में आरक्षण की जरूरत इसलिए भी है क्योंकि पारंपरिक रूप से स्त्रियों के कुछ बंधे हुए काम माने गए। सार्वजनिक क्षेत्र में काम करने के बारे में यह धारणा बनाई गई कि औरतें राजनीति की कठिनाइयां नहीं झेल सकती। एक सीमा तक इस समस्या का भी हल एक तिहाई आरक्षण में दिखा।
सरकार द्वारा तैयार महिला आरक्षण विधेयक की अब तक की यात्रा काफी रोचक और रोमांचक रही है। साल 1996 में तैयार किया गया यह विधेयक प्रारंभ से ही विवादों में उलझा रहा है। पहली बार तो विरोधी दल के नेताओं ने इसे पेश ही नहीं करने दिया। उसके बाद 1998 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री आई के गुजराल ने कोशिश की तो उनकी ही पार्टी के लोगों ने उन्हें खरी खोटी सुनाई। सरकार में मंत्री रहे शरद यादव ने आधी आबादी के लिए “परकटी महिलाओं” जैसा जुमला भी उछाला। उसी साल अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने इसे पेश करने की कोशिश की लेकिन समाजवादी पार्टी के सांसदों ने इसे सदन में ही फाड़ डाला। इस खींचातानी में तत्कालीन कानून मंत्री थंबी दुरई की कमीज भी फट गई थी।
फिर वर्ष 2000 में विधेयक पेश किया गया लेकिन पास नहीं हो सका। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने महिला आरक्षण पर सहमति के लिए 3 मार्च 2002 को सभी दलों की बैठक बुलाई, बैठक में कोई सहमति नहीं बन पाई क्योंकि मुलायम सिंह यादव और लालू यादव की पार्टी पिछड़ों के लिए अलग से कोटा की मांग पर अड़ी रही। मनमोहन सरकार ने भी इस विधेयक को लेकर कोशिश की, पर वह भी इसे सिर्फ राज्यसभा में ही पास करवा सके।
वर्ष 2014 में राजग सरकार बनने के बाद 22 जनवरी 2015 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ योजना की शुरुआत की थी। अब संसद के नवनिर्मित भवन से ऐतिहासिक “नारी शक्ति वंदन अधिनियम” पारित करवाकर बेटियों के लिए राजनीति करने और चुनकर लोकसभा तथा विधानसभाओं में पहुंचने का दरवाजा खोल दिया है।
हालांकि अभी अगले 15 साल तक के लिए 50 फ़ीसदी आबादी के बरक्स 33% आरक्षण का प्रावधान कानून में किया गया है। फिर भी इस हिस्सेदारी को राजनीतिक घटतौली के रूप में देखने की बजाय सकारात्मक सोच के साथ लिया जाना चाहिए।
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।