नई दिल्ली : विजयादशमी के अगले दिन श्रीरामजन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के पदाधिकारी दिल्ली पहुंचे। इसमें ट्रस्ट से जुड़े पदाधिकारियों चंपत राय, स्वामी गोविन्द गिरी और स्वामी विश्वप्रसन्नतीर्थ के साथ मंदिर निर्माण कार्य के प्रभारी नृपेन्द्र मिश्र भी शामिल थे। उन्होंने 22 जनवरी को राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा समारोह के लिए प्रधानमंत्री मोदी को निमंत्रित किया। उन्होंने आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत को भी राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह में शामिल होने का निमंत्रण दिया।
इस बात की जानकारी श्रीरामजन्मभूमि तीर्थक्षेत्र ट्रस्ट के ट्विटर हैंडल (X) पर भी दी गयी। प्रधानमंत्री मोदी को निमंत्रण देने के अलावा मोहन भागवत को निमंत्रण देने की जो सूचना दी गयी उसमें कहा गया है कि उक्त कार्यक्रम में ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के परमपूज्यनीय सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत’ भी उपस्थित रहेंगे। यह एक ट्वीट भाजपा या संघ विरोधियों को यह संदेश देने के लिए पर्याप्त है कि साधु संतों को साथ लेकर बने श्रीरामजन्मभूमि ट्रस्ट के लिए परम पूज्यनीय कौन है और परम निंदनीय कौन।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि रामजन्मभूमि के लिए आंदोलन को संचालित करने की जिम्मेवारी लंबे समय तक संघ और विश्वहिन्दू परिषद ने ही अपने हाथ में रखी थी। राम जन्मभूमि के लिए कारसेवा करनेवालों में संघ से जुड़े स्वयंसेवक ही सबसे आगे रहे। सरकार के स्तर पर भी चाहे केन्द्र की मोदी सरकार हो या राज्य की योगी सरकार उन्होंने मंदिर निर्माण के मुकदमे की पैरवी और सुनवाई में हर प्रशासनिक आवश्यकता को पूरा भी किया। मोदी ने अपने पहले कार्यकाल में राम मंदिर निर्माण पर सर्वसहमति बनाने का प्रयास भी किया था जिसमें उनके दूत के रूप में श्रीश्री रविशंकर ने संबंधित पक्षों से मेल मुलाकात की थी। हालांकि संघ के भीतर से ही उठे विरोध के बाद वो शांत बैठ गये थे लेकिन यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि आज अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण संभव हो रहा है तो उसके पीछे संघ के कार्यकर्ताओं का बलिदान और योगदान दोनों शामिल है।
परन्तु अब जब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का पहला चरण लगभग पूरा होने को है तब यह संदेश भी नहीं जाना चाहिए कि यह संघ या भाजपा का प्रोजेक्ट है जिसे वो अपने चुनावी लाभ के लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि विवादित बाबरी ढांचे का मुद्दा देश का मुद्दा तभी बना जब संघ और भाजपा ने इसे राजनीतिक और सामाजिक रूप से उठाना शुरु किया। इसके लिए भाजपा को बहुत अधिक राजनीतिक अछूतवाद का भी शिकार होना पड़ा, उसकी कई सरकारों को इसलिए गिरा दिया गया क्योंकि वो राम मंदिर की बात करते थे। लेकिन इस मुद्दे को उठाने का लाभ ये हुआ कि भाजपा देखते ही देखते देश का सबसे बड़ा राजनीतिक दल बन गयी।
वो दल जो हर प्रकार से अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण नहीं होने देना चाहते थे वो भी आज अयोध्या में राम मंदिर के समर्थक हो गये हैं। सपा, राजद और डीएमके जैसी घोर कम्युनल पार्टियां भी इस मुद्दे पर या तो चुप रहती हैं या फिर भाजपा पर भेदभाव का आरोप लगा देती हैं। कांग्रेस के भीतर से राम मंदिर को लेकर अलग अलग आवाजें उठती हैं लेकिन कमलनाथ जैसे नेता भी हैं जो खुलकर न केवल राम मंदिर का समर्थन करते हैं बल्कि उसके लिए अपना योगदान भी देते हैं।
ऐसे में संघ भाजपा के लिए भी अब जरूरी है कि वो राम मंदिर को अपने राजनीतिक हित से धीरे धीरे अलग कर दें। राम मंदिर निर्माण के लिए जब शिवसेना को छोड़कर कोई दल समर्थन नहीं कर रहा था तब भाजपा के ही अटल बिहारी वाजपेयी ने इसे मुखरता से मुद्दा बनाया। गोविन्दाचार्य की सलाह पर लालकृष्ण आडवाणी ने राम रथयात्रा निकाली। देशभर में महौल बनाया। लेकिन वहां जो लोग कारसेवा करने पहुंचे वो सभी भाजपा के वर्कर या वोटर नहीं थे, कालांतर में वो भले ही भाजपा के वोटर बन गये।
इसके बावजूद भारत में धर्म की कसौटी किसी दल का समर्थन या विरोध नहीं है। जिस दिन ऐसा होने लगेगा उसका सबसे अधिक नुकसान हिन्दू धर्म को ही होगा। इसलिए आज अगर कांग्रेस के कमलनाथ या फिर सलमान खुर्शीद यह सवाल उठा रहे हैं कि यह एक पार्टी का कार्यक्रम बन गया है तो इसे सिर्फ राजनीतिक प्रतिशोध की नजर से नहीं देखा जाना चाहिए। क्या सलमान खुर्शीद के इस सवाल से इंकार किया जा सकता है कि भाजपा के अतिरिक्त अन्य दलों के लोगों को निमंत्रण क्यों नहीं दिया जा रहा है? या फिर राममंदिर बनने का उत्साह भाजपा समर्थकों के बाहर क्यों नहीं है?
यह सवाल रामजन्मभूमि ट्रस्ट के सामने भी है जिसमें विश्व हिन्दू परिषद के चंपत राय महासचिव हैं, और संघ भाजपा के सामने भी कि कहीं राम मंदिर निर्माण का राजनीतिक अभीष्ट प्राप्त कर लेने के बाद यह एक दल का प्रायोजित कार्यक्रम तो नहीं बन रहा है? समय रहते उन कमियों को दूर किया जाना चाहिए जिससे यह किसी दल या विचारधारा का कार्यक्रम बनकर न रह जाए। राम भारतीय मर्यादा के शीर्ष पुरुष हैं। उनका मंदिर बने और मर्यादा का उल्लंघन हो जाए तो यह उन श्रीराम के नाम पर ही कलंक की तरह होगा जिनका जीवन मर्यादा के शिखर पर विराजमान है।
रामजन्मभूमि पर मंदिर के शिलान्यास के समय यह चूक हो चुकी है। उस समय मात्र संघ और भाजपा के अलावा अन्य दलों से या संप्रदायों से जिस प्रकार की भागीदारी होनी थी, वह नहीं दिखाई दी। अब रामलला के विराजमान होने के समय इस कमी को दूर किया जाना चाहिए। अच्छा हो कि इस कार्य के लिए राजनीतिक या वैचारिक संगठन से जुड़े लोगों की बजाय साधु संतों को ही आगे रखा जाए। उन्हीं के दिशानिर्देश को मानकर सभी पक्षों को वहां पहुंचने का न्यौता दिया जाए। अगर राम मंदिर के नाम पर राजनीतिक बंटवारा हो गया तो यह पांच सौ साल के उस संघर्ष को ही महत्वहीन कर देगा जिसे पीढी दर पीढी हमारे पुरखों ने लड़ा है।
जैसी खबरें आ रही हैं उसके मुताबिक कुल 6500 लोगों को इस कार्यक्रम में बुलाने का निर्णय लिया गया है। इनमें अलग अलग संप्रदायों के साधु संत, अपने अपने क्षेत्र के विशिष्ट लोग शामिल है लेकिन अलग अलग राजनीतिक दलों के नेताओं के नाम पर चुप्पी है। यही बात संदेह पैदा करनेवाली है। अगर राम का नाम और अयोध्या में उनका भव्य मंदिर भारतीय जनमानस को एक सूत्र में नहीं बांध पाया तो फिर भला भारत में ये काम कौन कर पायेगा?