नई दिल्ली : इजराइल और हमास के बीच छिड़ी जंग को करीब 17 दिन हो चुके हैं और यह हर दिन भयंकर होती जा रही है. बुधवार को गाजा-पट्टी के एक अस्पताल में हुए हमले में 500 से अधिक लोगों की जान चली गई है. हालांकि हमास की तरफ से कहा गया है कि यह इजराइल की तरफ से किया गया हमला था, लेकिन इजराइली डिफेंस फोर्स ने कुछ वीडियो जारी कर कहा है कि हमास का रॉकेट वहां पर गिरा और यह उसके आतंकियों द्वारा किया गया काम है.
हमास को पता था कि वह इजराइल से युद्ध में नहीं जीतेगा, लेकिन फिर भी उसने इतने बड़े हमले को अंजाम दिया है. अब उसने मुस्लिम देशों से मिलिट्री सहयोग की गुहार लगाई है और इसी के चलते इजराइल में सीरिया और लेबनान में हिबजुल्लाह की तरफ से रॉकेट दागे जा रहे हैं. हालांकि देखने की बात यह है कि जिस फिलिस्तीन के मुद्दे को लेकर हमास ने इजराइल के खिलाफ युद्ध छेड़ा हुआ है, वह कभी पूरे इस्लामिक देशों को एक साथ लाता था और वह बिना किसी झिझक के उसके साथ हर तरह से खड़े रहते थे.
हालांकि आज मामला बदल गया है, क्योंकि अब हमास के साथ हिबजुल्लाह जैसे आतंकी संगठन या ईरान और सीरिया जैसे देश को छोड़कर कोई भी बड़ा इस्लामिक देश खुलकर इजराइल के सामने नहीं आ रहा है. यदि हमास वाकई में फिलिस्तीन की आजादी और वहां के लोगों को लेकर चिंतित है तो उसको समर्थन क्यों नहीं मिल रहा, क्यों कोई बड़ा इस्लामिक उसके साथ नहीं खड़ा. ये सब बातें मिडिल ईस्ट में एक नए समीकरण को बयां कर रही हैं, जिसको लेकर कहा जा सकता है कि क्या इस्लामिक देशों का रुख इजराइल को लेकर वाकई बदल गया है. इस बात को जानने के लिए पहले यह जानना बहुत ही जरूरी है कि हमास की तरफ से किस लिए गया हमला किया और इसको करने के लिए यह वक्त क्यों चुना गया.
यह बात पूरी तरह से साफ है कि हमास को पता था कि वह इजराइल की जमीन को किसी भी तरह से हासिल नहीं कर सकता, लेकिन जिस तरह से हमास ने इजराइल के लोगों को को बंधक बनाया उससे यह साफ हो जाता है कि यह इजराइल में आतंक फैलाने और दुनिया के ज्यादा से ज्यादा लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचने के लिए किया गया है. इसके साथ ही हमले का वक्त चुने गए वक्त को अमेरिका के द्वारा इजराइल और सऊदी के बीच शांति समझौते को माना जा रहा है.
फिलिस्तीन मसला कई दशकों से था, लेकिन 27 मार्च 2022 को इजराइल के विदेश मंत्री यायर लैपिड ने अमेरिका के विदेश मंत्री एंटी ब्लिंकन के साथ 4 अरब देश मिस्र, यूएई, बहरीन और मरोक्को के डिप्लोमेटिक हेड के साथ मिले थे. इस समिट में उन्होंने ईरान, यूक्रेन वॉर और फिलिस्तनियों के बारे में चर्चा की थी. इस समिट में हुआ अब्राहम एकॉर्ड फिलिस्तीन के सवाल पर अरब देशों की मांग को दबा देने वाला था. अब्राहम एकॉर्ड के तहत यूएई, बहरीन और मरोक्को द्वारा इजराइल को मान्यता देना अपने आप में कई सवाल खड़े करता था. इसने 18 पहले सऊदी क्राउन प्रिंस द्वारा अब्दुल्लाह बिन अब्द अल-अजीज प्लान को खत्म कर दिया था.
क्या था अब्दुल्लाह प्लान
इस प्लान के तहत इजराइल के साथ डिप्लोमेटिक रिश्ते बनाने के लिए यह शर्त रखी गई थी कि 1967 के छह दिन तक चले युद्ध में कब्जाई गई सभी जमीन (वेस्ट बैंक, गाजा गुलाम हाईट्स) से अपना कंट्रोल वापस खींच ले, लेकिन इतिहास गवाह है कि यह प्लान सफल नहीं हो पाया. इसे फिलिस्तीनियों और कई अरब देशों द्वारा स्वीकार किया गया था, लेकिन इजराइल द्वारा खारिज कर दिया गया था. इजराइल ने कहा कि यह योजना फिलिस्तीनियों के लिए बहुत अधिक थी और यह सुरक्षा के लिए खतरा पैदा करेगी. इजराइल का तर्क था कि वेस्ट बैंक और पूर्वी यरुशलम में फिलिस्तीनियों के बहुमत के साथ इजराइल को अपने कब्जे को वापस लेने से पहले सुरक्षा उपाय लागू करने की आवश्यकता है.
अब्दुल्लाह प्लान को मध्य पूर्व शांति प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर माना जाता है. यह पहली बार था कि एक अरब नेता ने इजराइल के साथ पूर्ण राजनयिक संबंध स्थापित करने के लिए सहमति व्यक्त की थी. प्लान के तहत फिलिस्तीनियों को एक राज्य प्रदान किया जाएगा, जिसमें पूर्वी यरुशलम की राजधानी होगी. यह राज्य सभी फिलिस्तीनियों के लिए खुला होगा, चाहे उनकी धार्मिक पृष्ठभूमि कुछ भी हो. फिलिस्तीनी नेताओं ने इस प्रस्ताव का समर्थन यह कहते हुए किया कि यह उनके लोगों के लिए न्याय और समानता हासिल करने का एकमात्र तरीका है.
अमेरिका ने बदला गेम
रामल्लाह में राष्ट्रपति महमूस अब्बास सरकार के अंडर फिलिस्तीनी ऑथरिटी की बढ़ती अप्रासंगिकता के बीच राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और जो बाइडेन मिडिल ईस्ट में शांति के एक बहुत बड़े व कभी ना होने वाले काम को गल्फ के साथ छोटी-छोटी बातचीत में अमलीजामा पहना चुके थे. इसके साथ ही सऊदी-इजराइली वार्ता ने शांति के लिए चल रहे प्रयासों को मजबूती दी. इस शांति वार्ता के आलोचना करने वाले कहते थे कि जैसे-जैसे रिपब्लिकन और अरब अपना कंट्रोल मिडिल ईस्ट पर बढ़ाती जा रही है, उनके लिए फिलिस्तीन का मुद्दा भी पीछे होता जा रहा है. उनका कहना है कि अरब नेताओं द्वारा फिलिस्तीन के सवाल को पीछे छोड़ना इनकी अलोकतांत्रिक प्रकृति से जुड़ा है. कुछ तो यह तक कहते थे कि इन अरब देशों की यूएई के ऊपर राजनीतिक आश्रय उनसे यह सक जबरदस्ती करा रही है, इसी के चलते जैसे-जैसे अरब देश इजराइल के साथ शांति वार्ता की बात करते जा रहे थे फिलिस्तीन के अस्तित्व का सवाल कमजोर होता जा रहा था.
इसके साथ ही इस क्षेत्र के सबसे ताकतवर देश सऊदी अरब और यूएई समय की डिमांड को देखते हुए अपनी तेल से चलने वाली अर्थव्यवस्था को बदलने में लगे हुए हैं. इसके साथ-साथ यह अपनी सोसायटी में भी बहुत बड़े बदलाव कर रहे हैं, जिसमें धर्म और उसके प्रति लोगों की कट्टरवादिता में भी कमी आई है. दूसरे शब्दों में कहे तो जियो पॉलिटिक्स को जियो इकनॉमी द्वारा बदला जा रहा था और अब्राहम एकॉर्ड इजराइल को दुबई के काफी करीब ले आया था. इस साल इजराइल और दुबई के बीच एक फ्री ट्रेड एग्रीमेंट भी हुआ, जिसके बाद उसके बिजनेस में 2.5 बिलियन ट्रेड ग्रोथ बढ़ोतरी माना जा रहा था. इसके साथ ही चीन ने ईरान और सऊदी के बीच समझौता कराया, जिससे यह साफ हो गया है कि अब मिडिल ईस्ट के देश आपसी दुश्मनी को भुलाकर अपनी अर्थव्यवस्था को सुधारने में लगे हुए हैं.
अरब देशों को चाहिए बिजनेस मॉडल के लिए सहयोग
सऊदी से लेकर दूसरे अरब देशों का पता है कि उनकी अर्थव्यवस्था तेल से चल रही है और आने वाले समय में इसकी अहमियत कम हो जाएगी. इससे वह आईटी और मैन्युफैक्चरिंग में खुद को स्थापित करना चाहते है. इस बदलते बिजनेस मॉडल में उनको सबसे ज्यादा यूएस और इजराइल की जरूरत होगी. इसके साथ ही ईरान के बढ़ते परमाणु कार्यक्रम को देखते हुए सऊदी ने साफ कर दिया है कि अगर ऐसा होता है तो हम भी परमाणु हथियार बनाने में समय नहीं लगाएंगे और इसमें हमारी मदद यूएस करेगा. ऐसे में यह साफ है कि बाइडेन की इजराइल यात्रा से अरब देशों को साफ संदेश चला गया है कि अगर उनको यूएस की कोई भी मदद चाहिए तो वह हमास मामले से खुद को दूर रखें.