नई दिल्ली: कर्नाटक विधानसभा चुनाव (Karnataka Assembly Elections 2023) की घोषणा के साथ ही विधानसौध की बागडोर को लेकर जंग शुरू हो गई है. मतदान के लिए एक पखवाड़े से कम समय बचा है फिर भी भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों ने अगला मुख्यमंत्री (Chief Minister) कौन को लेकर अपने पत्ते नहीं खोले हैं. हालांकि जद (एस) शीर्ष पद पर एचडी कुमारस्वामी (HD Kumaraswamy) को प्रोजेक्ट करने के लिए जोर दे रही है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि बीजेपी और कांग्रेस सीएम चेहरे को लेकर सस्पेंस क्यों रख रहे हैं? कर्नाटक चुनाव (Karnataka Elections 2023) में बीजेपी का यही स्टैंड रहा है कि भगवा पार्टी बसवराज बोम्मई (Basavraj Bommai) के नेतृत्व में चुनावी मैदान में उतरेगी. हालांकि बीजेपी ने यह भी कहने से गुरेज नहीं किया है कि परिणाम घोषित होने के बाद मुख्यमंत्री का फैसला किया जाएगा. बीजेपी की तरह कांग्रेस भी सीएम चेहरे को लेकर असमंजस में है. कर्नाटक प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष डीके शिवकुमार (DK Shivakumar) और विपक्ष के नेता सिद्धारमैया (Siddaramaiah) ने खुले तौर पर कहा है कि वे शीर्ष पद के उम्मीदवार हैं, लेकिन कांग्रेस नेतृत्व ने उनमें से किसी को भी सीएम चेहरे के रूप में घोषित नहीं किया है. अब सवाल उठता है कि बीजेपी और कांग्रेस सीएम उम्मीदवारों के नाम की घोषणा करने से क्यों परहेज कर रही हैं?
बीजेपी के सामने चुनौतियां
नेतृत्व का अभाव
2018 के कर्नाटक विधानसभा चुनावों में तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने चुनावों से एक साल से अधिक समय पहले बीएस येदियुरप्पा को पार्टी के मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में घोषित किया था, लेकिन इस बार सत्ता में होने के बावजूद पार्टी ज्यादा फूंक-फूंक कर कदम रख रही है. केसरिया पार्टी फिलवक्त खुद को किसी नाम के बंधन में नहीं बांधना चाहती. इसके पीछे सबसे बड़ी वजह ये है कि येदियुरप्पा के बाद बीजेपी में कोई ऐसा स्थानीय चेहरा नहीं है, जिसके नाम पर कर्नाटक की लड़ाई लड़ी और जीती जा सके. येदियुरप्पा के राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में बसवराज बोम्मई 2021 में सीएम बन सकते हैं, लेकिन उनके पास येदियुरप्पा जैसा राजनीतिक कद या प्रभाव नहीं है.
जातिगत राजनीति
भारतीय राजनीति में जाति ने हमेशा एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और कर्नाटक विधानसभा चुनाव भी इससे अलग नहीं है. राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा को सत्ता में बने रहने के लिए कर्नाटक में दो प्रभावशाली समुदायों लिंगायत और वोक्कालिगा से ठोस समर्थन की आवश्यकता है. जहां लिंगायत भाजपा के पारंपरिक मतदाता माने जाते हैं, वहीं वोक्कालिगा जद (एस) के मुख्य वोट बैंक हैं. कर्नाटक ने लिंगायतों से तीन मुख्यमंत्री क्रमशः बीएस येदियुरप्पा, जगदीश शेट्टार और बीएस बोम्मई देखे हैं. हालांकि येदियुरप्पा ने अब खुद को चुनावी राजनीति से दूर कर लिया है. वह न तो चुनाव लड़ेंगे और न ही वह सीएम पद के दावेदार हैं. ऐसे में इस बार बीजेपी नया सामाजिक समीकरण बनाना चाहती है और लिंगायत-वोक्कालिगा दोनों का समर्थन हासिल करना चाहती है. बीजेपी में चुनाव प्रचार समिति की जिम्मेदारी लिंगायत समुदाय से आने वाले बीएस बोम्मई को दी गई है, जबकि चुनाव प्रबंधन की कमान वोक्कालिगा समुदाय से आने वाली केंद्रीय मंत्री शोभा करंदलाजे को दी गई है. इसके अलावा कर्नाटक विधानसभा चुनाव से पहले एक बड़े फैसले में सत्तारूढ़ भाजपा सरकार ने वोक्कालिगा और लिंगायत प्रत्येक के लिए आरक्षण 2 प्रतिशत बढ़ा दिया है, जबकि मुस्लिमों के लिए 2बी श्रेणी का 4 प्रतिशत अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) आरक्षण समाप्त कर दिया.
गुटबाजी का खतरा
कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी कई धड़ों में बंटी हुई है. बसवराज बोम्मई, बीएस येदियुरप्पा, बीएल संतोष के अपने-अपने खेमे में हैं. कुछ कैबिनेट मंत्री ऐसे भी हैं, जो खुद को सीएम पद का प्रबल दावेदार मानते हैं. बासनगौड़ा आर पाटिल, केएस ईश्वरप्पा, एएच विश्वनाथ, सीपी योगीश्वरा जैसे अनुभवी भाजपा नेताओं का भी एक मजबूत समर्थन आधार है और उनके अपने पसंदीदा हैं. ऐसे में अगर पार्टी किसी एक चेहरे पर दांव लगाती है, तो इससे दूसरे गुटों के नेताओं में असंतोष पैदा होगा.
’40 प्रतिशत कमीशन’ का दाग
विपक्ष भ्रष्टाचार के मुद्दे को बीजेपी के खिलाफ राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर रहा है. चुनाव से ठीक पहले बीजेपी विधायक मदल विरुपक्षप्पा को रिश्वत मामले में गिरफ्तार किया गया था. राज्य के स्कूल एसोसिएशन ने पीएम मोदी को पत्र लिखकर कहा कि बोम्मई सरकार में भ्रष्टाचार चरम पर है. स्टेट कॉन्ट्रैक्टर्स एसोसिएशन ऑफ कर्नाटक ने आरोप लगाया था कि कर्नाटक में हर काम के लिए 40 फीसदी कमीशन की मांग की जाती है. इसके बाद से ही विपक्ष बोम्मई सरकार को ’40 फीसदी कमीशन’ वाली सरकार कहने लगा. विपक्षी दल भ्रष्टाचार के आरोपों को लेकर भाजपा को घेरने की कोशिश कर रहे हैं. जहां पार्टी को चुनावों में ले जाने का काम बसवराज बोम्मई के कंधों पर आ गया है, वहीं बीजेपी ने उन्हें या किसी और को सीएम चेहरे के रूप में घोषित करने से परहेज किया है. असम में पिछले विधानसभा चुनावों में भाजपा ने इसी तरह का रुख अपनाया और चुनाव तक सर्बानंद सोनोवाल को नेतृत्व में रखा और जीत के बाद हिमंत बिस्वा सरमा को मुख्यमंत्री के रूप में लाया गया. बीजेपी पूरे चुनाव को केंद्र में पीएम मोदी के नेतृत्व वाली सरकार की योजनाओं के इर्द-गिर्द केंद्रित रख रही है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और जेपी नड्डा के राज्य दौरे तक बीजेपी चुनावी माहौल को पूरी तरह से बदलने की कोशिश कर रही है ताकि कांग्रेस बनाम बोम्मई के बजाय चुनाव मोदी बनाम कांग्रेस हो जाए. ऐसे में भगवा पार्टी की रणनीति किसी एक नेता को मुख्यमंत्री के रूप में पेश करने के बजाय सामूहिक नेतृत्व के साथ चलने की है.
कांग्रेस के सामने चुनौतियां
गुटबाजी का खतरा
कर्नाटक कांग्रेस का मामला भी बीजेपी जैसा ही है. बीजेपी की तरह कांग्रेस में भी कई गुट हैं. एक तरफ प्रदेश अध्यक्ष डीके शिवकुमार का खेमा है, तो दूसरी तरफ पूर्व सीएम सिद्धारमैया का गुट है. दोनों नेता कर्नाटक के मुख्यमंत्री पद के लिए खुलकर अपनी-अपनी दावेदारी पेश कर रहे हैं. हालांकि उन्होंने पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व के फैसले का पालन करने का वादा भी किया है. ऐसे में कांग्रेस इस कलह को चुनाव तक रोकना चाहती है. वह दोनों क्षेत्रीय क्षत्रपों के राजनीतिक कद और आधार का फायदा उठाना चाहती है और सीएम चेहरे का नाम लेने से बच रही है.
जातिगत समीकरण
कर्नाटक में कांग्रेस ने प्रभावशाली वोक्कालिगा समुदाय से आने वाले डीके शिवकुमार को पार्टी की कमान सौंपी है. दूसरी ओर सिद्धारमैया कोरबा समुदाय से आते हैं, लेकिन एक मजबूत ओबीसी नेता के रूप में जाने जाते हैं. दोनों कांग्रेस नेता कर्नाटक में दो महत्वपूर्ण सामाजिक समूहों का प्रतिनिधित्व करते हैं. पार्टी शिवकुमार और सिद्धारमैया दोनों के जातिगत समर्थन का लाभ उठाना चाहती है.
खड़गे कार्ड
एक और जटिलता कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में मल्लिकार्जुन खड़गे की उपस्थिति है. हालांकि उनकी राष्ट्रीय भूमिका को देखते हुए उनके मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार होने की संभावना नहीं है, लेकिन कांग्रेस के सत्ता में आने पर मुख्यमंत्री कौन होगा इस पर अंतिम निर्णय में निश्चित रूप से उनकी महत्वपूर्ण भूमिका होगी. ‘एकमात्र इलदा सरदार’ यानी एक नेता जो कभी नहीं हारा के रूप में भी खड़गे को जाना जाता है. इसके साथ ही वह कर्नाटक में कांग्रेस के सबसे मजबूत दलित चेहरे रहे हैं, जो कलबुर्गी से नौ बार विधायक चुने जा चुके हैं. कांग्रेस अध्यक्ष से पार्टी के लिए दलित वोटों को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की उम्मीद है.
राहुल गांधी कार्ड
कांग्रेस की कमान भले ही राहुल गांधी के हाथ में न हो, लेकिन आज भी पार्टी की राजनीति उन्हीं के इर्द-गिर्द घूमती है. गांधी वंशज पार्टी का राष्ट्रीय चेहरा हैं. कर्नाटक में चुनाव से कुछ हफ्ते पहले राहुल गांधी को एक आपराधिक मानहानि मामले में दोषी ठहराए जाने के बाद लोकसभा से अयोग्य घोषित कर दिया गया था. राहुल गांधी की अयोग्यता ने कांग्रेस नेतृत्व को एक साथ ला दिया, क्योंकि उन्होंने पूरे देश में विरोध प्रदर्शन किया. उनकी अयोग्यता निश्चित रूप से आगामी चुनावों में कांग्रेस के लिए सहानुभूति बटोरने के लिए इस्तेमाल की जाएगी. राहुल गांधी कर्नाटक के कोलार से चुनाव अभियान की शुरुआत कर चुके हैं. यह वही जगह है जहां उन्होंने ‘मोदी उपनाम’ वाली टिप्पणी की थी जिसके लिए उन्हें हाल ही में दोषी ठहराया गया था. इसके अलावा राहुल गांधी ने पिछले साल कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा के दौरान भी काफी समय राज्य में बिताया था. ऐसे में पार्टी को इसका राजनीतिक लाभ मिलने की उम्मीद है.इस माहौल में अगर पार्टी सीएम चेहरे को लेकर कोई घोषणा करती ,है तो राहुल गांधी की अयोग्यता को चुनावी मकसद से इस्तेमाल करने की रणनीति विफल हो सकती है.
कांग्रेस को कर्नाटक के समर्थन की दरकार
भारत भर में हाल के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को कई झटके लगे हैं. इसे देखते हुए कांग्रेस के लिए कर्नाटक विधानसभा चुनाव हर हाल में जीतना जरूरी है. बीते दिनों की बात करें तो जब भी कांग्रेस संकट में रही है, कर्नाटक उसका सबसे बड़ा सहारा बना है. 1977 में पूरे देश में कांग्रेस का लगभग सफाया हो गया था, लेकिन उस समय भी कर्नाटक ही एक ऐसा राज्य था जो इंदिरा गांधी के साथ खड़ा था. 1977 के आपातकाल के बाद के आम चुनावों में हारने वाली इंदिरा गांधी ने अक्टूबर 1978 में चिकमंगलूर उपचुनाव में फिर से चुनाव लड़ने का फैसला किया. चिकमंगलूर की जीत इंदिरा गांधी के लिए महत्वपूर्ण थी, क्योंकि वह अपनी हार के एक साल के भीतर नवंबर 1978 में संसद में लौटीं. इसी तरह जब सोनिया गांधी ने चुनावी शुरुआत की, तो उन्होंने अपना पहला चुनाव कर्नाटक के बेल्लारी से लड़ा और भाजपा की सुषमा स्वराज को हराकर संसद पहुंचीं. कांग्रेस आज अपने राजनीतिक इतिहास में सबसे कमजोर स्थिति में है. कांग्रेस का जनाधार और राजनीतिक जमीन सिमटती जा रही है. पार्टी 9 साल से केंद्र की सत्ता से बाहर है. एक के बाद एक राज्य सरकारें खोती जा रही हैं. पार्टी केवल तीन राज्यों में सत्ता में है. ऐसे में कर्नाटक चुनाव में कांग्रेस की जीत 2024 के आम चुनाव से पहले उसकी वापसी की उम्मीद जगा सकती है. कांग्रेस उम्मीदों और दबाव से जूझ रही है और फिलहाल कोई जोखिम उठाने को तैयार नहीं है और ऐसे में उसने सीएम चेहरे की घोषणा करने से परहेज किया है.