नई दिल्ली: दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के नतीजे मंगलवार को सामने आ गए. भारतीय जनता पार्टी (BJP) बहुमत से दूर रही, लेकिन एनडीए (NDA) 292 सीटों पर जीत हासिल करने में कामयाब हो गई. जबकि, इंडिया गठबंधन ने 234 सीटों पर जीत दर्ज की है. चुनावी नतीजों में NDA की सरकार बनती दिख रही है. पीएम नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने 2014 और 2019 दोनों में आसानी से बहुमत हासिल कर लिया था. लेकिन, एक दशक में पहली बार है, जब बीजेपी ने बहुमत का आंकड़ा पार नहीं कर पाई है. आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू और बिहार में नीतीश कुमार ने अपने-अपने राज्यों में शानदार जीत हासिल की. इसके बाद दोनों किंगमेकर बन गए हैं. बीजेपी 10 साल बाद अपने सहयोगियों, खासकर टीडीपी और जेडी(यू) पर निर्भर होगी. तो चलिए आपको बताते हैं कि नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू के अलावा बीजेपी के अन्य सहयोगी क्यों एनडीए छोड़ सकते हैं और उनके साथ बने रहने की क्या वजह है?
चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी
तेलुगू देशम पार्टी यानी टीडीपी (TDP) साल 1996 में पहली बार एनडीए में शामिल हुई थी. उस समय चंद्रबाबू नायडू एक युवा नेता थे, जिन्हें आईटी गवर्नेंस में अग्रणी के रूप में जाना जाता था. हालांकि, उन्होंने साल 2018 में एनडीए का साथ छोड़ दिया और उनकी पार्टी को बहुत नुकसान उठाना पड़ा. 2018 में तेलंगाना विधानसभा चुनाव में टीडीपी सिर्फ 2 सीटों पर सिमट गई और 2019 में आंध्र प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव में भी उसे सिर्फ 23 सीटें ही मिलीं.
इस साल फरवरी में टीडीपी एक बार फिर एनडीए में शामिल हो गई और इसका फायदा पार्टी को हुआ है. चंद्रबाबू नायडू की पार्टी ने आंध्र प्रदेश विधानसभा की 175 सीटों में से 135 सीटों पर जीत हासिल की है, जबकि लोकसभा की 16 सीटों पर उसने कब्जा किया है. इसके बाद नायडू लगभग दो दशकों में पहली बार किंगमेकर की भूमिका निभाने के लिए तैयार हैं.
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, इस बीच इंडिया गठबंधन (I.N.D.I.A Alliace) ने नेताओं द्वारा चंद्रबाबू नायडू को लगातार कॉल किए जाने की खबरें आ रही हैं. ऐसे में गठबंधन को लेकर बात बनती है तो नाडयू कई प्रमुख मंत्रालयों की मांग कर सकते हैं. लेकिन, उनके एनडीए में बने रहने की भी 2 बड़ी वजहें हैं. पहली वजह, आंध्र प्रदेश के विभाजन और वाईएसआर रेड्डी के निधन के बाद पार्टी टूटने से कांग्रेस अभी तक आंध्र प्रदेश में अपनी खोई हुई लोकप्रियता हासिल नहीं कर पाई है. दूसरी वजह, आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू के अभियान में पीएम मोदी और भाजपा का साथ मिला, जिस वजह से उनकी पार्टी बड़ी जीत तक पहुंच पाई. अगर नायडू जनादेश के खिलाफ जाते हैं तो भविष्य में राज्य और राष्ट्रीय राजनीति में उनको नुकसान उठाना पड़ सकता है.
नीतीश कुमार की जनता दल (यूनाइटेड)
एक समय में नीतीश कुमार को विपक्ष के संभावित प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में देखा जा रहा था, लेकिन उन्होंने लोकसभा चुनाव से पहले पलटी मारकर एनडीए के साथ जाने का फैसला किया. अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए के दिग्गज नेता रहे नीतीश ने उनकी कैबिनेट में केंद्रीय रेल मंत्री के रूप में काम किया था. हालांकि, 2014 के आम चुनाव से पहले चीजें बिगड़ने लगीं. नीतीश ने नरेंद्र मोदी को पीएम पद के उम्मीदवार के रूप में पेश किए जाने का कड़ा विरोध किया और 2013 में एनडीए छोड़ दिया.
2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में जेडी(यू), कांग्रेस, आरजेडी और वामपंथी दलों के गठबंधन महागठबंधन ने भाजपा को हरा दिया. लेकिन, यह नीतीश कुमार के पलटी मारने का आखिरी मौका नहीं था. 2017 में नीतीश कुमार अपने धुर विरोधी रहे लालू यादव की पार्टी के साथ काम करने से इनकार करते हुए गठबंधन से अलग हो गए और एनडीए में शामिल हो गए. इसके बाद 2022 में एक बार फिर नीतीश महागठबंधन में वापस आ गए, लेकिन 2024 में फिर उन्होंने महागठबंधन से अलग होकर एनडीए में शामिल होने का फैसला किया.
इसके बाद इस बात की चर्चा थी कि पलटी मारने की प्रवृति की वजह से नीतीश कुमार ने जनता के बीच विश्वसनीयता खो दी है, लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव में 12 सीटों पर जीत हासिल कर वो एक बार फिर किंगमेकर की भूमिका में आ गए हैं. अब बीजेपी को सरकार बनाने के लिए एनडीए की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी जेडी(यू) की जरूरत होगी, लेकिन नीतीश कुमार के रिकॉर्ड को देखते हुए उनके समर्थन से केंद्र में स्थिरता आने की संभावना कम ही है. क्योंकि वो कभी भी इंडिया गठबंधन (I.N.D.I.A Alliace) से बेहतर डील मिलने की स्थिति में पलटी मार सकते हैं. हालांकि, अगर वो एनडीए छोड़ते हैं तो उनकी लोकप्रियता को भी नुकसान हो सकता है.
चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास)
लोजपा के संस्थापक रामविलास पासवान भारतीय राजनीति में सबसे चतुर राजनीतिक संचालकों में से एक के रूप में जाने जाते थे. वे चुनाव से पहले गठबंधन बदल लेते थे और जीत हासिल करते थे. अटल बिहारी वाजपेयी के युग में एनडीए में रहने वाले रामविलास पासवान, मोदी सरकार के मंत्रिमंडल में जगह बनाई. वे अपनी पार्टी के प्रभाव और लाभ को अधिकतम करने के लिए अपनी वफादारी बदलने के लिए भी जाने जाते थे. अब देखना होगा कि चिराग पासवान को अपने पिता की विरासत को कितनी अच्छी तरह आगे बढ़ा पाते हैं.
हाजीपुर के गढ़ सहित 5 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल करने के बाद चिराग पासवान अपने पिता की तरह बिहार की दलित आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाली एक महत्वपूर्ण आवाज होने का दावा कर सकते हैं. अब तक, उन्होंने एनडीए के प्रति अपनी वफादारी जारी रखने का दावा किया है. इंडिया गठबंधन (I.N.D.I.A Alliace) में जाने पर वह एक या अधिक प्रमुख कैबिनेट पद की मांग कर सकते हैं, जो पिछली बार मोदी सरकार ने उन्हें देने से मना कर दिया था.
एकनाथ शिंदे की शिवसेना (शिंदे)
शिवसेना लंबे समय तक भाजपा के हिंदुत्व की सहयोगी रही है. उनका गठबंधन 1984 में शुरू हुआ था, लेकिन 2019 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के बाद यह टूट गया. साल 2022 में शिवसेना टूट गई और विद्रोही एकनाथ शिंदे गुट, एनडीए में शामिल हो गई. इसके बाद अंततः पार्टी का चुनाव चिन्ह और नाम शिंदे गुट को दिया गया. हालांकि, 2024 के लोकसभा चुनाव में शिवसेना (शिंदे) ने 7 सीटों पर जीत दर्ज की है, जबकि जबकि उद्धव ठाकरे गुट ने 9 सीटों पर कब्जा किया है. शिंदे गुट आने वाले समय में भी बीजेपी के साथ रह सकती है, लेकिन पार्टी के भीतर फूट पड़ने की स्थिति में कई लोग उद्धव ठाकरे और इंडिया गठबंधन के साथ वापस जा सकते हैं.