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बारह महीनों के बीच तेरहवां महीना मलमास क्यों आता है?

Jitendra Kumar by Jitendra Kumar
18/07/23
in कला संस्कृति, धर्म दर्शन
बारह महीनों के बीच तेरहवां महीना मलमास क्यों आता है?

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बारह महीनों के बीच तेरहवां महीना मलमास क्यों आता है?: इस वर्ष अधिक मास या मलमास का महीना सावन के बीचों बीच पड़ रहा है। आज से शुरु हो रहे मलमास या अधिक मास के बारे में अक्सर लोग पूछते हैं कि बारह महीनों के बीच तेरहवां महीना कहां से आया? इसकी शुरूआत कैसे हुई? इसे मलमास या पुरुषोत्तम मास क्यों कहा जाता है? ऐसे प्रश्नों के साथ लोगों की धारणा है कि यह मास शुभ कार्य के आयोजन हेतु ठीक नहीं है। इसमें पूजा-पाठ या धार्मिक कथाओं का श्रवण किया जाता है। लेकिन हमें यह समझना जरूरी है कि कालगणना से हिसाब से यह भारतीय कैलेण्डर में यह तेरहवां महीना क्या होता है और इसका सिद्धांत क्या है?

अधिक मास का इतिहास पुराना है। यह मास मानव कृत व्यवस्था नहीं है बल्कि इसके पीछे ज्योतिष शास्त्रीय और प्राकृतिक योजना है। विश्व साहित्य के सर्वाधिक पुरातन ग्रंथ ऋग्वेद में अतिरिक्त मास का उल्लेख है। वेदांग ज्योतिष ने भी प्रत्येक पांच वर्षों में दो मास यानी ढाई-ढाई साल के अंतराल में एक-एक अधिक मास जोड़ दिया है। प्राचीन काल में मासों की गणना चंद्र से व वर्ष की गणना सूर्य से होती थी। चांद्र वर्ष में 354 दिन ही होते हैं, जो सौर वर्ष के 365 दिनों की तुलना में 11 कम पड़ते हैं। अत: यदि केवल चांद्र वर्ष की ही अभियोजना हो तो ऋतुओं को पीछे हटाना पड़ जाएगा। इससे ही कई देशों में अधिक मास की अभियोजना निश्चित हुई।

अधिक मास या मलमास के कई नाम हैं। काठक संहिता में इस मास को मलिम्लुच और वाजसनेयी संहिता में संसर्प या अहंस्पति कहा गया है। कालांतर में पुराणों ने इस मास को भगवान विष्णु के नाम से पुरुषोत्तम मास की संज्ञा देकर मान्यता दी पर वैदिक साहित्य में तेरहवें मास के साथ जो भावना थी, वही भावना पुराणों के पुरुषोत्तम मास के साथ भी जुड़ी रही है। गृह्यपरिशिष्ट ने हर तीन संवत्सर बाद पड़ने वाले तेरहवें मास के विषय में एक सामान्य नियम दिया है कि मलिम्लुच मास मलिन है और इसकी उत्पत्ति पाप से हुई है। इसलिए यह सभी कार्यों के लिए गर्हित (वर्जित) है। यहां तक कि यह देवों एवं पितरों के कृत्यों के लिए भी त्याज्य है।

सभी देशों में काल की मौलिक अवधियां प्राय: एक-सी होती हैं, जैसे – दिन, मास और वर्ष, जिसमें ऋतुएं भी हैं। यद्यपि काल की अवधियां समान हैं तथापि मासों एवं वर्षों की व्यवस्था में दिनों के क्रम में अंतर पाया जाता है। दिनों की अवधियों, दिन के आरंभ और अंत के काल, ऋतुओं और मासों में वर्षों का विभाजन, प्रत्येक मास व वर्ष में दिनों की संख्या तथा विभिन्न प्रकार के मासों में अंतर है। वैज्ञानिक तथ्य है कि धुरी पर पृथ्वी के घूमने से दिन बनते हैं, जिसमें सूर्य के साथ पृथ्वी के जिस भाग का जुड़ाव होता है, वहां दिन का निर्माण होता है। सूर्य और चंद्र काल के बड़े मापक हैं। मास प्रमुखत: चंद्र अवस्थिति है और वर्ष सूर्य की प्रत्यक्ष गति है पर वास्तव में यह सूर्य के चतुर्दिक पृथ्वी का भ्रमण है। कालगणना के इस क्रम को व्यवस्थित करने का भारत में वैज्ञानिक साधन अधिक मास है, जो प्राय: हर तीन साल बाद आता है।

मुसलमानों ने सूर्य अयनवृत्तीय वर्ष के विस्तार पर ध्यान न देकर और चंद्रमा को ही काल का मापक मानकर अपने हिसाब से समाधान कर लिया। उनका वर्ष विशुद्ध चंद्र वर्ष है। इसका परिणाम यह हुआ कि इस्लामिक वर्ष केवल 354 दिन का हो गया और लगभग 33 वर्षों में उनके सारे त्योहार वर्ष के सभी मासों में घूम जाते हैं। दूसरी ओर प्राचीन मिस्र वालों ने चंद्र को काल के मापक के रूप में नहीं माना और उनके वर्ष में 365 दिन थे। मिस्र के लोगों ने 30 दिनों के बारह मास में पांच अतिरिक्त दिन और स्वीकार किए हैं। उनके पुरोहित 3,000 वर्षों तक यही विधि मानते रहे। इस कारण उनके यहां अतिरिक्त वर्ष या मलमास नहीं होता। भारत में सभी संवतों में अधिक मास परिकल्पित है। 33 ईसा पूर्व में रचित एक पश्चात्कालीन रचना ‘ज्योतिर्विदाभरण’ में कलियुग के उन छह व्यक्तियों के नाम आए हैं, जिन्होंने संवत चलाए। ये हैं – धर्मराज युधिष्ठिर, महाराज विक्रमादित्य, शालिवाहन, विजयाभिनंदन, नागार्जुन एवं कल्कि।

‘श्राद्धविवेक’ की टीका में श्रीकृष्ण तर्कालंकार का कथन है कि जिस मास में सूर्य की कोई संक्रांति नहीं होती, ऐसा चांद्र मास ही मल मास कहलाता है। उत्तर भारत में मास में कृष्ण पक्ष पहले और शुक्ल पक्ष बाद में आता है। मास का अंत पूर्णिमा से होता है। पर अधिक मास में इससे ठीक विपरीत होता है। इसमें शुक्ल पक्ष पहले और कृष्ण पक्ष बाद मे आता है और मास का अंत अमावस्या से होता है।

अधिक मास में धर्मशास्त्र के ग्रंथों ने विभिन्न धार्मिक कृत्यों का वर्णन किया है। काठक गृह्यसूत्र का कथन है कि चूडाकरण, यज्ञोपवीत व विवाह सहित अन्य कृत्य अधिक मास में नहीं करने चाहिए। अधिक मास में न तो किसी नए व्रत का आरंभ होता है और न ही उद्यापन। पर नित्य और नैमित्तिक कृत्य, जैसे तीर्थस्नान और मृतक के लिए प्रेत श्राद्ध अधिक मास में भी किए जाते हैं। शव को श्मशान तक ले जाकर अंत्येष्टि करना, पिंडदान और अस्थि संचय अधिक मास में भी किया जाता है। नित्य किए जाने वाले पूजा-पाठ भी अधिक मास में होते रहते हैं। अधिक मास या मलमास में विष्णु सहस्रार्चन करना सर्वाधिक प्रशस्त है।

 

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