आलोक कुमार : बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार विपक्षी एकता के केंद्रबिंदु बनने हेतु प्रयासरत हैं। विपक्ष से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार होने की चाहत में उन्होंने सात महीने पहले एनडीए का साथ छोड़ा था। तब से लगातार प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस को रिझाने में लगे हैं। उनके लिहाज से लोकसभा की सदस्यता और लुटियंस जोन की कोठी तक गंवा बैठे राहुल गांधी से 12 अप्रैल को हुई मुलाकात महत्वपूर्ण है।
असल में नीतीश कुमार 2009 से ही प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार होने की जुगत में लगे हैं जब लोकसभा चुनाव में लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में एनडीए को हार मिली थी। यह बात दीगर है कि तब वो राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से आस लगाए बैठे थे। इसके लिए वह आज भी उम्र की वजह से राजनीति से रिटायर हो चुके आडवाणी जी से अपने मधुर रिश्ते की दुहाई देते रहते हैं। भाजपा ने बेजोड़ जीत के लिए 2013 में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर नीतीश की उम्मीद पर पहला कुठाराघात किया था। इससे निराश होकर उन्होंने एनडीए का दामन छोड़ धुरविरोधी लालू प्रसाद को गले लगाना और लोहिया जैसे बड़े समाजवादी नेताओं की भावना के विपरीत कांग्रेस के साथ गठबंधन कबूल कर लिया।
अब जाकर लंबे समय बाद कांग्रेस नेता राहुल गांधी की बढ़ी मुश्किल के बीच नीतीश कुमार की उम्मीद की गोटी सियासी बिसात पर थोड़ी बहुत बैठने लगी है। लिहाजा उनकी कोशिशों के नतीजे का इंतजार दिलचस्प होने वाला है। दिल्ली में कांग्रेस नेता से उनकी ताजा मुलाकात नीतीश कुमार के लिए बहुप्रत्याशित ब्रेक थ्रू है। यह मुलाकात बुजुर्ग कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के आवास 10, राजाजी मार्ग पर हुई है जो दो पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम का कार्यकाल समाप्ति के बाद का सरकारी आवास हुआ करता था।
बीते साल अगस्त में रातोंरात बिहार में एनडीए का दामन छोड़ देश का प्रधानमंत्री होने की ख्वाईश में नीतीश कुमार महागठबंधन की सरकार चला रहे हैं। जब से उन्होंने एनडीए से हालिया नाता तोड़ा है तब से कांग्रेस पार्टी अंदरूनी व्यस्तताओं में उलझी रही है। कांग्रेस अपने अध्यक्ष के चुनाव और राहुल गांधी को भारत जोड़ो यात्रा के जरिए विपक्ष से प्रधानमंत्री का उम्मीदवार प्रोजेक्ट करने की तैयारी में व्यस्त थी। इसलिए राहुल गांधी से नीतीश कुमार की मुलाकात लटककर रह गई थी। अब जाकर यह लटकन खत्म हुई है। हालांकि खुद की तसल्ली के लिए नीतीश ने अपने बीमार बड़े भाई लालू प्रसाद के साथ तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिलकर फोटो ऑप्स करवा लिया था।
राहुल से मिलने के लंबे इंतजार से बेसब्र नीतीश कुमार का कांग्रेस पर लगातार दवाब बना रहा कि जो करना है, जल्द फैसला लें, ताकि विपक्षी एकता के बल पर भारतीय जनता पार्टी को राजनीति का मजा चखाया जा सके। बकौल नीतीश कुमार उनको विपक्षी एकता की कमान मिले तो 2024 के अगले लोकसभा चुनाव में सत्तारूढ़ दल को महज सौ से कम सीटों पर लाकर समेट दिया जाएगा। वह लगातार सार्वजनिक मंचों से यह बात कह रहे हैं।
हालांकि इसमें सबको पता है कि इस दावे में कई लोच हैं। एक तो सामने नरेंद्र मोदी हैं, जिनकी लोकप्रियता आम जनता में बरकरार है। दूसरा, राहुल गांधी की सदस्यता जाने से अभी जो कांग्रेस पार्टी में प्रधानमंत्री के उम्मीदवार का टोटा दिख रहा है, वह स्थाई रहेगा यह कहना मुश्किल है। क्योंकि इस फैसले के खिलाफ कानूनी लड़ाई जारी है। उसका नतीजा आना बाकी है। तीसरा, राहुल की अयोग्यता का कतई मतलब नहीं कि देश की सबसे पुरानी पार्टी को समाजवादी धुरी की राजनीति करते रहे नीतीश कुमार के पीछे आंख मूंदकर लगा दिया जायेगा। समाजवादियों और कांग्रेस का विराग डॉ. राममनोहर लोहिया के दिनों से चला आ रहा है।
राहुल गांधी से हुई ताजा मुलाकात में बिहार के उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव, जेडीयू अध्यक्ष ललन सिंह और आरजेडी नेता मनोज झा साथ रहे। बिहार में दोनों पार्टी के मेल को अप्राकृतिक गठजोड़ मानने वालों के लिए इसके खास संकेत है कि आगे बीजेपी से संबंध सुधारने की अटकलें लगाने पर विराम लग जाए। मगर इस मुलाकात के कुछ ही घंटों बाद नीतीश कुमार जब दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से मिलने पहुंचे तो उनके साथ आरजेडी अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव का कोई नुमाइंदा नहीं था। यह बताने के लिए काफी था कि विपक्षी एकता की कोशिश को अंजाम तक पहुंचने में अब भी मीलों का सफर तय करना बाकी है।
जाहिर तौर पर कट्टर ईमानदार की छवि पेश करने को आतुर केजरीवाल भ्रष्टाचार की प्रतिमूर्ति बने लालू परिवार से फासले को भावी राजनीति के लिए जरूरी मानते हैं। इसलिए उन्होंने भतीजे तेजस्वी के साथ दिल्ली घूम रहे नीतीश कुमार से इस शर्त पर मिलना कबूल किया कि व्यक्तिगत मुलाकात में आरजेडी के लोग शामिल नहीं होंगे। हालांकि अतीत में विपक्षी एकता के मंच पर उनका लालू प्रसाद से गले मिलने का पोस्टर वायरल है।
राजनीतिक जरूरत के लिए नीतीश कुमार कुशाग्रता के साथ स्वच्छंद विचरण के लिए कुख्यात हैं। सिविल इंजिनियरिंग की पढ़ाई करने वाले नीतीश कुमार के राजनीतिक सफर की शुरुआत 1975 के जेपी आंदोलन से हुई। आरंभ के डेढ़ दशक तक वह लालू प्रसाद के छोटे भाई बन छाया की तरह साथ रहे। जातिवादी राजनीति की पगडंडियों पर चलना सीखा। फिर जब केंद्र में भारतीय जनता पार्टी के उदय की बारी आई तो अचानक से लालू प्रसाद के खिलाफ मुखर हो गए। उनके खिलाफ चारा घोटाले में मुकदमों का अंबार लगा दिया। नतीजा हक में आया और बीते 17 साल से येन केन प्रकारेण बिहार के मुख्यमंत्री बने हुए हैं।
नीतीश कुमार की अधूरी इच्छा प्रधानमंत्री बनना है। हालांकि पत्रकारों के पूछे जाने पर वो तपाक से रोक देते हैं कि ये सब बात अभी नहीं लेकिन इस ख्वाब को पूरा करने में उन्हें कांग्रेस पार्टी का भरपूर साथ चाहिए। उनकी चाहत को पूरा करने के लिए कांग्रेस अगर उदारता दिखाती भी है, तो उसके लिए तमिलनाडु से एमके स्टालिन, केरल से सीपीएम, आंध्र प्रदेश से जगनमोहन रेड्डी अथवा चंद्रबाबू नायडू, तेलंगाना से चंद्रशेखर राव, ओडिशा से नवीन पटनायक, झारखंड से हेमंत सोरेन, पश्चिम बंगाल से ममता बनर्जी, उत्तर प्रदेश से अखिलेश यादव और मायावती, पंजाब में आप अथवा अकाली दल, महाराष्ट्र से महाविकास अघाड़ी आदि के समर्थन की आवश्यकता है। इस आवश्यकता का पूरा होना अनगिनत किंतु परंतु पर टिका है।
यही वो राजनीतिक पेंच हैं जिसकी वजह से बार बार विपक्षी एकता की डोर टूट जाती है। इस बार नीतीश कुमार कौन सा मजबूत जोड़ लगायेंगे, इसे आनेवाला समय बतायेगा। बहरहाल यूपीए की ओर से अब नीतीश कुमार सभी विपक्षी पार्टियों से बातचीत करेंगे और दावा किया गया है इस महीने के आखिर तक सभी विपक्षी पार्टियों की सम्मिलित बैठक आयोजित करेंगे।