नई दिल्ली: जलवायु संकट बढ़ता ही जा रहा है और इससे निपटने के लिए जो कदम उठाए जा रहे हैं उसकी रफ्तार धीमी है। इस चुनौती के बीच दुबई में आयोजित 28 वीं संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन शिखर वार्ता (COP28) काफी महत्वपूर्ण है। 30 नवंबर से 12 दिसंबर तक शिखर वार्ता चलेगी। दुनिया में कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए जितने धन की जरूरत है उतना उपलब्ध हो पाएगा या नहीं। 2020 तक विकासशील देशों को 100 अरब डॉलर प्रतिवर्ष सहायता मुहैया कराई जानी थी लेकिन यह यह कभी हो नहीं पाया। COP28 संयुक्त राष्ट्र की जलवायु के मुद्दे पर 28 वीं बैठक है। यह हर साल होता है और जलवायु परिवर्तन पर दुनिया का एकमात्र बहुपक्षीय निर्णय लेने वाला मंच है, जिसमें दुनिया के हर देश की लगभग पूर्ण सदस्यता है। COP28 में शामिल होने के लिए पीएम मोदी दुबई पहुंच गए हैं।
एक विकासशील देश होने के नाते इस साल COP28 शिखर सम्मेलन में भारत की भूमिका काफी महत्वपूर्ण होगी। दुनिया की सबसे बड़ी आबादी यहीं रहती है। भारत को COP28 बैठक के दौरान जलवायु परिवर्तन पर एक स्पष्ट रोडमैप की उम्मीद है। विदेश सचिव विनय क्वात्रा ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की दुबई यात्रा से पहले कहा कि भारत को दुबई में चल रहे COP28 में जलवायु वित्त पोषण पर एक स्पष्ट रूपरेखा पर सहमति बनने की उम्मीद है।
वार्ता में मीथेन उत्सर्जन पर व्यापक चर्चा होने की उम्मीद है। खासकर चीन के अपनी 2035 की जलवायु योजना में इसे संभावित ग्रीनहाउस गैस के रूप में शामिल करने की प्रतिबद्धता दोहराई है। मीथेन दूसरी सबसे प्रमुख ग्रीन हाउस गैस है जिसमें ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ाने में कार्बन डाई ऑक्साइड की तुलना में अधिक खतरनाक क्षमता है। हालांकि विशेषज्ञों का मानना है कि इसका भारत पर उल्लेखनीय असर नहीं पड़ेगा क्योंकि भारत पहले से ही कृषि केंद्रित उन उपायों को लागू कर रहा है जो लाभकारी है।
ईयू और अमेरिका ने संयुक्त रूप से 2020 के स्तर की तुलना में 2030 तक दुनिया भर में मीथेन उत्सर्जन को 30 प्रतिशत तक कम करने के लिए 2021 में वैश्विक मीथेन संकल्प शुरू किया था। लगभग 150 देशों ने इस पर हस्ताक्षर किए हैं, लेकिन चीन, भारत और रूस प्रमुख उत्सर्जकों में से हैं जिनका अब भी इसमें शामिल होना बाकी है। इस महीने की शुरुआत में दुनिया के शीर्ष दो कार्बन उत्सर्जक देशों अमेरिका और चीन ने ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए अपनी 2035 की राष्ट्रीय योजनाओं में मीथेन को शामिल करने का वादा किया था।
भारत वर्तमान में फसलों के विविधिकरण पर ध्यान दे रहा है और धान के बजाय मोटे अनाज का उत्पादन कर रहा है जिससे मीथेन के उत्सर्जन में कमी लाने में मदद मिल सकती है। भारत हर बूंद अधिक फसल नामक योजना के माध्यम से जल संरक्षण पर ध्यान केंद्रित कर रहा है। साथ ही, जैविक यूरिया के उपयोग को बढ़ाने के लिए एक कार्यक्रम शुरू किया गया है।
कार्बन डाई ऑक्साइड वायुमंडल में सैकड़ों से हजारों वर्षों तक बनी रहती है। अगर इसका उत्सर्जन तुरंत कम भी कर दिया जाए तब भी सदी के अंत तक इस कमी का जलवायु पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। इसके विपरीत मीथेन का वायुमंडलीय जीवनकाल बहुत कम (लगभग 12 वर्ष) होता है, लेकिन यह बहुत अधिक शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस है, जो वायुमंडल में मौजूद रहते हुए बहुत अधिक ऊर्जा अवशोषित करती है। संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि 2030 तक मानव-जनित मीथेन उत्सर्जन को 45 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है। इस कमी से 2045 तक ग्लोबल वार्मिंग में लगभग 0.3 डिग्री सेल्सियस की कमी हो सकती है।