येदियुरप्पा एक समय कर्नाटक में भाजपा के इकलौते लिंगायत विधायक थे, बाद में जिनकी अगुआई में 15 साल पहले कर्नाटक में पहली बार भाजपा की सरकार बनी थी। 2019 में भाजपा ने राज्य में दोबारा सरकार बनाई तो येदियुरप्पा फिर से मुख्यमंत्री बने। लेकिन दो साल बाद उम्र का हवाला देकर भाजपा आलाकमान ने येदियुरप्पा से इस्तीफा ले लिया। फिर भी भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व येदियुरप्पा की लोकप्रियता और लिंगायत मतदाताओं में उनकी पकड़ को कमजोर नहीं कर पाया। इसलिए अब जबकि कर्नाटक विधानसभा चुनाव में 45 दिन से भी कम समय बचा है तब मजबूरी में भाजपा फिर से सत्ता प्राप्ति के लिए कर्नाटक में येदियुरप्पा को ही सबसे ज्यादा महत्व दे रही है।
1985 के बाद से कर्नाटक में कोई भी सत्ताधारी पार्टी लगातार दूसरी बार सत्ता में नहीं लौटी है। 2013 को छोड़कर केन्द्र में सत्तारूढ़ दल कभी भी राज्य में बहुमत हासिल नहीं कर सका। ऐसे में भाजपा की निर्भरता येदियुरप्पा पर सबसे ज्यादा है। उसका प्रमुख कारण उनका लिंगायत होना और अपने इस समुदाय पर एकछत्र राज होना है। कर्नाटक राज्य की 6.5 करोड़ आबादी में 17 प्रतिशत लिंगायत है। राज्य की 224 विधानसभा सीटों में से दो तिहाई सीटों पर लिंगायत असरदार है। येदियुरप्पा लिंगायत समुदाय के मठों और उनके प्रमुखों में सीधी पकड़ रखते हैं। येदियुरप्पा दक्षिण में भाजपा के ऐसे पहले नेता भी हैं, जो रिकार्ड 4 बार मुख्यमंत्री रहे। हालांकि केंद्रीय नेतृत्व से मतभेदों के कारण 2012 में उन्होंने भाजपा छोड़ दी थी। येदियुरप्पा ने कर्नाटक जनता पक्ष बनाई तो भाजपा 2013 के विधानसभा चुनाव हार गई। 2013 के अंत में येदियुरप्पा दोबारा भाजपा में लौटे, तो भाजपा ने 2014 में 18 लोकसभा सीटें जीत ली।
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ऐसे में भाजपा को कर्नाटक चुनाव जीतने के लिए येदियुरप्पा की जरूरत है। यही वजह है कि 80 साल के हो गए येदियुरप्पा की सक्रिय राजनीति से सन्यास की घोषणा के बाद भी भाजपा उनके कंधों पर सवार होकर कर्नाटक चुनाव लड़ रही है। मोदी और शाह येदियुरप्पा को पूरा महत्त्व दे रहे हैं। भाजपा ने उन्हें अपने पार्लियामेंट्री बोर्ड का सदस्य भी बनाया है। येदियुरप्पा का कर्नाटक में प्रभाव का असर है कि भाजपा आलाकमान बुजुर्ग नेताओं को घर बिठाने के अपने फॉर्मूले से पीछे हट गया है और 80 साल के हो चुके येदियुरप्पा राज्य के चुनाव अभियान की धुरी हैं।
27 फरवरी को येदियुरप्पा के जन्मदिन पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक नए हवाई अड्डे का उद्घाटन करने उनके गृह जिले शिवमोगा गए। मोदी ने वहां यह जताने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि पार्टी येदियुरप्पा को कितना महत्व देती है। शिवमोगा एयरपोर्ट का नाम भी येदियुरप्पा के नाम पर रखा गया है। प्रधानमंत्री मोदी ने शिवमोगा में 3600 करोड़ और बेलगावी में 2700 करोड़ रूपये की योजनाओं का उद्धाटन और शिलान्यास किया। शिवमोगा भाजपा का गढ़ है। यहां की 7 में से 6 सीटों पर उसका कब्जा है। वही, बेलगावी में 18 सीटें हैं। इनमें से 11 भाजपा के खाते में हैं।
येदियुरप्पा की जिस लिंगायत समुदाय पर मजबूत पकड़ है वह लगभग 87 उपजातियों से बना एक बड़ा समुदाय है जो 12वीं सदी के दार्शनिक और समाज सुधारक बसवन्ना के प्रति अपनी आस्था रखता है। इनमें से कुछ उप-जातियां सदर लिंगायत, बनजीगा लिंगायत और पंचमशाली सबसे ज्यादा प्रभावशाली हैं। मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई सदर लिंगायत से और येदियुरप्पा बनजीगा लिंगायत से आते हैं। कर्नाटक में लिंगायत समुदाय का प्रभाव ही कहा जाएगा कि वहां अब तक दस लिंगायत मुख्यमंत्री बन चुके हैं।
17 प्रतिशत जनसंख्या वाले इस समुदाय ने लगभग दो दशक से भाजपा का मजबूती से समर्थन किया है। 1989 में येदियुरप्पा भाजपा के एकमात्र लिंगायत विधायक थे लेकिन 2004 तक भाजपा के लिंगायत विधायकों की संख्या 34 हो गई थी। 2008 में जब पार्टी पहली बार सत्ता में आई, लिंगायत विधायकों की संख्या 39 के सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच गई और येदियुरप्पा का कद और मजबूत हो गया। इसलिए 2021 में जब पार्टी ने उन्हें विदाई दी तो सावधानीपूर्वक एक लिंगायत नेता बोम्मई को गद्दी पर बिठाया। लेकिन बोम्मई, येदियुरप्पा जैसे जननेता नहीं हैं, इसलिए, आगामी चुनाव के लिए पार्टी को फिर से अपने पुराने योद्धा को सेनापति बनाकर चुनाव लड़ना पड़ रहा है।
येदियुरप्पा के चुनावी दौड़ से बाहर होने और उम्रदराज होने को कांग्रेस अवसर के रूप में देख रही है और लिंगायत समुदाय को फिर से साथ लाने के लिए हरसंभव कोशिश कर रही है। कर्नाटक प्रदेश कांग्रेस कमेटी के कार्यकारी अध्यक्ष और अखिल भारतीय वीरशैव महासभा के महासचिव ईश्वर खांड्रे का कहना है कि ‘भाजपा येदियुरप्पा को सिर्फ वोट लेने के लिए इस्तेमाल कर रही है। अगर येदियुरप्पा भाजपा को इतने प्रिय है तो उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाया क्यो? इस बार लिंगायत कांग्रेस का साथ देने वाले है।’
लेकिन लिंगायत वोटरों के कांग्रेस के साथ जाने की संभावना कम है। 1989 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को वारेन्द्र पाटील के कारण लिंगायतों ने एकतरफा मतदान किया था जिसके कारण कांग्रेस ने 224 मे से 179 सीटें जीत ली थी। वीरेन्द्र पाटील मुख्यमंत्री बने थे। उस साल 63 लिंगायत विधायकों में से 41 कांग्रेस के टिकट पर जीते थे। लेकिन 1990 में पाटील को पक्षाघात का दौरा पड़ा और तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राजीव गांधी ने उनकी जगह पिछड़े वर्ग के नेता एस. बंगारप्पा को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला किया। उन्होंने यह घोषणा बीमार पाटील से मिलने के बाद लौटते समय बेंगलूरू हवाई अड्डे पर की जो कर्नाटक के राजनैतिक इतिहास में एक निर्णायक क्षण था।
राजीव गांधी के इस निर्णय से आहत लिंगायतों ने कांग्रेस को सबक सिखाने की ठानी और 1994 के चुनाव में कांग्रेस की सीटें 179 से घटकर 36 रह गई। कांग्रेस के वोट प्रतिशत में भी 17 प्रतिशत गिरावट दर्ज हुई। 1994 में कांग्रेस की हार में इस ‘विश्वासघात’ पर लिंगायतों की प्रतिक्रिया स्पष्ट थी और कांग्रेस फिर कभी इस समुदाय का समर्थन हासिल नहीं कर पाई। 1999 में 67 लिंगायत विधायकों में से आधे कांग्रेसी थे लेकिन ऐसा जनता दल में विभाजन के कारण हुआ था।
2018 में चुनाव से ऐन पहले कांग्रेस के मुख्यमंत्री सिद्धरामैया ने लिंगायत मत को एक अलग धर्म के रूप में मान्यता देने की लंबे समय से चली आ रही मांग मान ली। लेकिन उनकी सरकार ने जो सिफारिश की उसमें वीरशैवों और लिंगायतों के बीच फर्क किया गया जो कि अब तक हमेशा से समानार्थक शब्दों के रूप से इस्तेमाल होता आया था। लिंगायतों को कांग्रेस की उनके बीच विभाजन करने की नीति पंसद नहीं आई और कांग्रेस से लिंगायतों ने दूरी बनाकर रखी।
प्रेक्षकों का मानना है कि वीरशैव-लिंगायतों को लुभाने में उम्मीदवारों का चयन इस बार अहम रहने वाला है। 2018 में कांग्रेस ने 43 लिंगायतों को उतारा था जिनमें से 16 जीते, जबकि भाजपा ने 67 को टिकट दिया, जिनमें से 38 जीते। कर्नाटक की 224 सीटों में से इस समुदाय की कम से कम 154 सीटों पर उपस्थिति है।