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Home राजनीति

खिचड़ी सरकार के मुखिया बनकर कमजोर हो जाएंगे नरेंद्र मोदी?

Jitendra Kumar by Jitendra Kumar
05/06/24
in राजनीति, राष्ट्रीय
खिचड़ी सरकार के मुखिया बनकर कमजोर हो जाएंगे नरेंद्र मोदी?
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नई दिल्ली : राहुल गांधी से लेकर ममता बनर्जी तक विपक्षी नेताओं ने नतीजों के बाद अपनी टिप्पणियों में बीजेपी के बहुमत हासिल न कर पाने को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हार बताया। वह भी तब जब बीजेपी अकेले इतनी सीट हासिल की है, जितनी सीटें विपक्षी इंडिया गठबंधन की सभी पार्टियों ने मिलकर भी हासिल नहीं कर पाई हैं। वैसे विपक्ष की तरफ से नतीजों को मोदी की हार बताना अपेक्षित ही था, क्योंकि एनडीए का पूरा अभियान उन्हीं के इर्द-गिर्द केंद्रित था। सिर्फ टीडीपी को कुछ हद तक इसका अपवाद कहा जा सकता है। मोदी के ऊर्जावान अभियान ने केवल उनकी व्यक्तिगत जिम्मेदारी को बढ़ाने का काम किया। अब पहली बार वह खिचड़ी सरकार चलाएंगे। गुजरात में भी वह मुख्यमंत्री रहते पूर्ण बहुमत की मजबूत सरकार चलाई थी। प्रधानमंत्री के तौर पर भी उन्होंने 10 साल पूर्ण बहुमत की सरकार चलाई। अब खिचड़ी सरकार में उनके सामने न सिर्फ मजबूत और नए जोश से लबरेज आक्रामक विपक्ष का सामना करना पड़ेगा बल्कि नीतीश और चंद्रबाबू नायडू जैसे सहयोगियों के दबाव से भी पार पाना होगा जो चाहेंगे कि सरकार उनकी शर्तों और उनके इशारे पर चले।

बीजेपी भले ही अकेले दम पर पूर्ण बहुमत से चूक गई है लेकिन लगातार 10 साल तक केंद्र की सत्ता में रहने के बाद भी इस तरह का प्रदर्शन कहीं से भी कमजोर नहीं है। ये ऐसा प्रदर्शन है जिसके बारे में कोई भी सत्ताधारी दल सिर्फ सपना ही देख सकता है। जवाहरलाल नेहरू के बाद मोदी केवल दूसरे प्रधानमंत्री होंगे जो तीसरा कार्यकाल हासिल करेंगे, भले ही इस बार गठबंधन के सहारे हो। असल में उनकी उपलब्धि को और भी बड़ा माना जा सकता है क्योंकि यह एक ऐसे राजनीतिक माहौल में हुआ है जो नेहरू के मुकाबले कहीं ज्यादा ध्रुवीकृत, विखंडित और प्रतिस्पर्धी है। इसके अलावा, नेहरू को यह भी फायदा मिला कि उन्हें महात्मा गांधी का आशीर्वाद प्राप्त था और वे एक ऐसी पार्टी के नेता थे जो स्वतंत्रता आंदोलन की अगुआ थी और इस वजह से जनता का उससे भावनात्मक लगाव था।

2024 की बात करें तो, 240 का आंकड़ा 400-पार के दावों के सामने बहुत छोटा दिखता है लेकिन 1984 के बाद अबतक कभी कांग्रेस या गैर-बीजेपी पार्टियों ने इतनी सीटें हासिल नहीं कर पाई हैं। ये 1984 के बाद किसी भी गैर-बीजेपी पार्टी की तरफ से हासिल किया गया सबसे अच्छा आंकड़ा है, जब कांग्रेस इंदिरा गांधी की हत्या से पैदा हुई व्यापक सहानुभूति लहर पर सवार थी। हालांकि, इस झटके ने महंगाई और बेरोजगारी जैसे मुद्दों को सामने ला दिया है, जो चुनाव अभियान के दौरान चेतावनी के संकेत के रूप में उभरे थे, लेकिन बीजेपी ने उसे हल्के में लिया। वह तो अतिआत्मविश्वास में यह मानकर चल रही है कि पूर्ण बहुमत तो मिलना ही मिलना है।

2024 की बात करें तो, 240 का आंकड़ा 400-पार के दावों के सामने बहुत छोटा दिखता है लेकिन 1984 के बाद अबतक कभी कांग्रेस या गैर-बीजेपी पार्टियों ने इतनी सीटें हासिल नहीं कर पाई हैं। ये 1984 के बाद किसी भी गैर-बीजेपी पार्टी की तरफ से हासिल किया गया सबसे अच्छा आंकड़ा है, जब कांग्रेस इंदिरा गांधी की हत्या से पैदा हुई व्यापक सहानुभूति लहर पर सवार थी। हालांकि, इस झटके ने महंगाई और बेरोजगारी जैसे मुद्दों को सामने ला दिया है, जो चुनाव अभियान के दौरान चेतावनी के संकेत के रूप में उभरे थे, लेकिन बीजेपी ने उसे हल्के में लिया। वह तो अतिआत्मविश्वास में यह मानकर चल रही है कि पूर्ण बहुमत तो मिलना ही मिलना है।

400+ का लक्ष्य, जो ताकत और आत्मविश्वास का संदेश देने वाला था, भी उल्टा पड़ गया। विपक्ष ने कहा कि यह संविधान को बदलने और कोटा खत्म करने की साजिश का हिस्सा है। मुस्लिम कोटा के खिलाफ आक्रामक तरीके से मोदी द्वारा किया गया जवाबी हमला काम नहीं आया क्योंकि हिंदुओं ने जाति के आधार पर वोट दिया।

इससे उनके विरोधियों को यह आरोप लगाने का मौका मिल गया कि वे विभाजनकारी हैं और हताश हैं। इससे उनके उन समर्थकों में जो उदारवादी हैं, में बेचैनी पैदा हुई। सीटों में आई कमी ने तीसरे कार्यकाल को चुनौती में बदल दिया है। एक मजबूत विपक्ष के अलावा मोदी को एन. चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार जैसे सहयोगियों से भी जूझना होगा, जो बीजेपी के अजेंडे के सभी पहलुओं से सहमत नहीं होंगे और बड़ी बाधा बन सकते हैं। साथ ही, आरएसएस भी इस बात पर सतर्क नजर रखेगा कि वह सहयोगियों के दबाव से कैसे निपटता है।

लेकिन मोदी संघर्षों से दूर नहीं हैं। उनका करियर मुख्य रूप से चुनौतियों से निपटने और सही समय पर उनका सामना करने का है। साफ तौर पर कमजोर होने के बावजूद, वह ऐसी ताकत के साथ आगे बढ़ेंगे जिसका दावा बहुत कम लोग कर सकते हैं। बीजेपी की संख्या भले ही कम हो गई हो, लेकिन यह इस बात का सबूत है कि वह उस दौर में भी अपनी साख और विश्वसनीयता बनाए हुए हैं, जब वफादारी अल्पकालिक और क्षणभंगुर होती है और बढ़ती अपेक्षाओं की गर्मी में साख खत्म हो जाती है। यही मुख्य कारण है कि बीजेपी विपक्ष द्वारा इतनी कुशलता से खेले गए ‘जाति’ कार्ड से बच पाई।

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