कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजों (Karnataka Election Result) के बाद से कांग्रेस (Congress) में अलग ही जोश और उत्साह देखने को मिल रहा है। इस जीत के साथ देश की सबसे पुरानी पार्टी ने सत्ता पक्ष और विपक्षी खेमे के बीच ये संदेश पहुंचाने की कोशिश की है कि भले ही वर्तमान में उसके सितारे गर्दिश में हों, लेकिन आज भी BJP को टक्कर वो ही दे सकती है। मगर दूसरी विपक्षी पार्टियां कांग्रेस के इस आत्मविश्वास पर भरोसा करने को राजी नहीं हैं और 2024 के लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Election 2024) में विपक्षी गठबंधन को लेकर उनकी कुछ और ही राय है।
दरअसल अगले साल होने वाले आम चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के खिलाफ एक संयुक्त उम्मीदवार का विचार विपक्षी खेमे के भीतर ही भीतर रफ्तार पकड़ रहा है, जिसमें क्षेत्रीय दलों को भी साथ लेकर चलने की कवायद की जा रही है।
मगर इन क्षेत्रीय दलों की मांग कुछ ऐसी है, जो शायद ही कांग्रेस को रास आए। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी से लेकर उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव तक, क्षेत्रीय नेताओं को लगता है कि कांग्रेस को उन सीटों पर टिके रहना चाहिए, जहां वो आसानी से जीत सकती है, न कि सभी सीटों पर उम्मीदवार खड़ा करके दूसरे दलों की भी मुश्किलें बढ़ानी चाहिए।
चालिए मान लीजिए कि पार्टी आलाकमान इस तर्क को मान कर चुनाव में जाने के लिए राजी हो भी जाए, लेकिन फिर उसके सामने चुनौती ये होगी कि वह अपनी राज्य इकाइयों को कैसे समझाएं।
कैसे आया संयुक्त उम्मीदवार का प्रस्ताव?
2024 के आम चुनावों में एक संयुक्त उम्मीदवार का प्रस्ताव पटना में 12 जून को विपक्ष की बैठक से पहले बिहार के मुख्यमंत्री और JD(U) नेता नीतीश कुमार की एंट्री के साथ ही आया। उन्होंने 22 मई को कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और वरिष्ठ नेता राहुल गांधी से मुलाकात की। पिछले डेढ़ महीने में इस तरह की दूसरी बैठक थी। कहा जाता है कि बैठक में कुमार ने “ऑल अगेंस्ट वन” रणनीति पर जोर दिया।
इस विचार को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने समर्थन दिया और कांग्रेस को कर्नाटक चुनाव में जीत पर बधाई दी। तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ने कहा, “संयुक्त विपक्ष के उम्मीदवार का समय आ गया है।”
2019 के लोकसभा चुनावों से पहले इसी तरह के प्रस्ताव पर कोई चर्चा भी नहीं हुई थी, लेकिन इस बार, ज्यादातर क्षेत्रीय दलों की इस पर सैद्धांतिक सहमति है। ये वो दल हैं, जो बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु जैसे लोकसभा में बड़े पैमाने पर सांसद भेजते हैं। सबसे बड़ी चुनौती सीटों के बंटवारे की योजना होगी, जो सभी को मंजूर हो। पश्चिम बंगाल में, TMC नहीं चाहेगी कि कांग्रेस उन सीटों पर उम्मीदवारों को खड़ा करे, जिन्हें वह जीत सकती है, जैसे अधीर रंजन चौधरी अपने गढ़ मुर्शिदाबाद में।
इसी तरह, उत्तर प्रदेश में, अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी को लगता है कि कांग्रेस बस वोट बर्बाद करेगी, इसलिए सबसे अच्छा है कि वह बाहर ही रहे। कांग्रेस के लिए, इस विचार की सीमित अपील है। इसने सालों से अमेठी और रायबरेली में भी यही प्रस्ताव रखा है, यही एक कारण है कि वह इन लोकसभा सीटों पर जीत हासिल कर रही है।
मुंबई में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी चिदंबरम ने कहा, “हम कम से कम 450 सीटों पर एक विपक्षी उम्मीदवार के प्रस्ताव पर काम कर रहे हैं। इस पर काम अभी चल रहा है।” इस प्रस्ताव को लागू करने में सबसे बड़ी बाधा इसकी अपनी स्टेट यूनिट होंगी। उदाहरण के तौर पर हाल ही में दिल्ली के लिए लाए गए केंद्र अध्यादेश का मामला ही देख लीजिए।
केजरीवाल राज्यसभा में केंद्र के अध्यादेश को गिराने के लिए घूम-घूम कर सभी विपक्षी पार्टियों से एकजुट होकर उनका समर्थन मांग रहे हैं, लेकिन कांग्रेस की दिल्ली और पंजाब यूनिट हाई कमाने को साफ शब्दों में कह चुकी हैं कि वे AAP का समर्थन न करें। क्योंकि इन दोनों ही जगहों से केजरीवाल की पार्टी ने कांग्रेस का सफाया कर दिया है।
इतना ही नहीं पंजाब और दिल्ली कांग्रेस के नेताओं ने इस मुद्दे पर पार्टी आलाकमान के साथ एक बैठक की और अपने विचार भी उनके सामने रखे। अध्यादेश वाले मामले पर स्टेट यूनिट की ऐसी प्रतिक्रिया को देखते हुए, ऐसा बिल्कुल नहीं लगता है कि दिल्ली कांग्रेस राष्ट्रीय राजधानी की सात लोकसभा सीटों पर AAP के खिलाफ उम्मीदवार नहीं खड़ा करने के फैसले को आसानी से मान लेगी।
ये तो सिर्फ एक छोटा सा उदाहरण था कि आखिर स्टेट यूनिट को मनाना कांग्रेस के लिए कितना मुश्किल, वो भी महज एक अध्यादेश के समर्थन के लिए, तो सोचिए कि जब बात लोकसभा चुनाव की होगी, तब तस्वीर कैसी होगी। क्या फिर ये मान लिया जाए कि 2024 के चुनावों में एक संयुक्त विपक्ष के उम्मीदवार की चर्चा सिर्फ एक मुद्दा ही बन कर रह जाएगी?