मडोना आती ख्वाबों में…
लुभाती रही कोई मडोना ख्वाबों में …
और मैं भूल अपना अस्तित्व
अक्सर ही पीछा करता रहा उन ख्वाबों का —
अर्धांगिनी चारदीवारी के भीतर
निभाती रही अपने कर्तव्य
तन और मन से …
और व्यतीत करती रही जीवन
न होठों पर शिकायत
न दिल में कोई मलाल
वो थी खुश थी बस पाकर दो लाल ..
जिनपर करती न्योछावर वो
अपनी सब खुशियाँ …
बस इतनी सी ही बन गयी
उसकी सब दुनिया ..
मैं रहा ढूंढता मडोना को
कभी एक प्रोफाइल तो कभी दूसरी में ,
कभी कभी कोई मडोना
हो भी जाती थी मेहरबान
फिर मैं उसपर कर देता दिल और जान कुर्बान …
पर उसे रास न आते थे
मेरे ये उपहार ..
उसको तो बस होता था
मेरे “पैसे” से प्यार …
जब तक लुटाता
वो साथ रहती —
जब जब विपन्नता आती मुझपर
आगे बढ़ जाती वो हँसकर —
मैं टूटा दिल लेकर रोता …
दिन औ रात आँसुओं से धोता —
नई मडोना फिर मिल जाती …
तब कलेज़े को राहत आती ..
दूर होती मेरी बेसब्री —
मिलता सुकून दिल को
फिर शुरू होती धन की लूट
जिसमे न थी तनिक भी छूट …
कुछ मडोना ऐसी भी आती ..
तन मन धन सब लूट ले जाती …
कभी कभी जब दिल सम्भलना चाहता …
तब पत्नी पर आता क्रोध –
क्यों न वो करती प्रतिकार –
इतनी बेवफाई पर भी
आखिर क्यों करती मुझको ही प्यार ..
न ही वो लड़ती और झगड़ती है
न ही देती हैं वो गलियां ..
रखती तीज करवाचौथ ..
और तमाम व्रत
जीवन बिताती बिना गिला किये —
और मैं ..
मुझपर न थी कोई जिम्मेदारी
इसलिए ही थी मदोनाओं से यारी —
यौवन सारा गया बीत …
अब जरावस्था में
मैं हूँ मेरी पत्नी हैं —
साथ साथ हम रहते हैं
आपस में न झगड़ते हैं
दुनिया वाले हमको देखते हैं
“आदर्श ” जोड़ा वो कहते हैं
कैसे कहूँ आज भी .
मडोना आती हैं ख्वाबों में
और ऐसे ही अक्सर
लाली आती हैं पिचके गालों में झुर्रियाँ भी फड़फड़ाती हैं —
मडोना के ख्वाबों में आने से
संजीवनी सी दौड़ जाती है !!!
सीमा “मधुरिमा”
लखनऊ