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Home अपराध संसार

वो रेल की पटरी और खौफनाक मंजर…

Manoj Rautela by Manoj Rautela
19/05/20
in अपराध संसार, राष्ट्रीय, साहित्य
वो रेल की पटरी और खौफनाक मंजर…

प्रज्ञा शालिनी

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रेल की पटरियों पे मजदूरों की छत-विक्क्षत लाशें और उन लाशों के पास कुछ गोद वाले दुधमुँहे बच्चे भी थे जो जीवित थे वो मन्जर असहनीय था बस उसी वीडियो के देखने के बाद मैं बीमार हुई और उसी वाक़िए को
आत्माएँ यमराज , ईश्वर सब को समलित करते हुए एक बिचलित मन के उदगार …कुछ इस तरह हुए…

“एक साथ रो रही थी आत्माएँ
नहीं … नहीं …नहीं जाएँगे
अपने परिवार और
दुधमुँहे बच्चों को यूँ पटरियों
सड़को पे खेत पगडण्डियों में छोड़कर
मचा था हाहाकार
लाशें बिखरीं थीं
देवदूत वापसी को थे नहीं खींच पा रहे थे
उन माँओं का बोझ जिनके दुधमुँहे बच्चे
अबोध होकर
पी रहे थे अभी भी निर्जन छाती से दूध
जो बेसुध पड़ी लेक़िन आत्मा चीत्कार रही थी
कोई दो वर्ष का छोटा बच्चा अपनी माँ को
उठाने की रो कर चिल्ला कर हर कोशिश में था
कोई सुधि गंवा लेटा था मृत माँ के शरीर से सटा
रोटियों बिखरीं थी पटरियों के बीच
और चिन्दी चिन्दी होती गृहस्थी
जो साथ उठा लाए थे मय बाल बच्चों के
यमराज क्षमा , क्षमा यमराज
नहीं होगा ये भारी काम अब हमसे
बहुत भारी है वो आत्माएँ खिंचती ही नहीं हैं
यमराज ने इन्तिहाई आश्चर्य से देखा
यमदूतों की ऐसी लाचारी…
चलो तैयार करो मेरी सबारी चलकर देखता हूँ
कौन है …

पूछा था यमराज ने कौन हो तुम लोग…?
महराज हम ग़रीब मजदूर हैं
कहीं नही गए थे न आये हैं न चीन से न अमेरिका , न लंदन और हाँ ना साहेब इटली से
हमसे बीमारी, महामारी नहीं फैली हैं
बस हमबिना रोज़गार भूख से नहीं मरना चाहते थे
हम तो बस शहर शहर से अपने अपने गाँव
जरूर जा रहे हैं मौत भी आये तोपरदेस छोड़
जनम की मिट्टी पे आये कुदुम्भ क़बीले की साथ आए
हम ग़रीब भूख प्यास के मारे कोई क़सूर नही किये
साहेब… ग़रीबी थी कसूरबार हमारी
बिना साधन चलते चलते रात घिर आई थी सो
नींद लग गई थी साहिब नींद
सोच रहे थे रेल की पटरियों के पास सोएंगे तो
रेल की तेज आवाज़ से उठ जाएँगे बड़ी भोर और
फिर चलपड़ेगे पाओ पाओ
नींद चिरनिद्रा में बदल जाएगी नहीं सोच पाए थे
देखो महराज हमारे बच्चे, देखो हमारा बिखरा परिवार
सच, एक-बारको तो यमराज भी नहीं समझ सके
ये मंजर … इतना दयनीय उद्धेलित करता हुआ
माँओं का दर्द असहनीय था
दुधमुँहे बच्चों का छूटता दूध था
नन्ही कोरी मासूम आँखे सकुचाई थीं
माँ उनकी उन्हें दुलारती ना थी
नम थी उनकी भी आँखे …अब
चित्र गुप्त भी हड़बड़ाए थे
मजदूरों के बहीखाते ढूढ़ते देखते
अनगिनत मजदूर की
मौतें,
बिना क़सूर …जगह जगह
उफ़्फ़फ़…

अफ़सोस
औऱ
यहाँ की धरती पर कहीं कोई शोर न था
कोई आहट न थी हैरानी की,कोई बेचैनी न थी
सब सोए थे चैन की नींद सभी आला ओहदे दार
बड़े बड़े अफ़सर सभ्य और धनाढ्य कहे जाने वाले लोग
जिनके पास पैसा अन्न सब पर्याप्त था
पीढ़ियों तक के लिए सम्हला
उनका नहीं था कोई दूर के रिश्ते में भी शामिल
मजदूरों की मौत में , सो निश्चिन्त थे
कोई हड़बड़ाहट नहीं थी, किसी भी ज़बाब सबाल की
मालूम था ज़बाब लेने बाला और पूछने वाला
एक ही थैले के हैं उनकी नज़र से सब ठीक है …
एक बड़ी महामारी आई है उससे बचने के लिए
गरीबों को घर, फेक्ट्री सार्वजनिक सारी
जगह रोजी रोटी के लिए जाने पर
पावंदियाँ लगाई गईं हैं ओहदेदार लोगों का मानना था
फैलेगी जरूर इन्ही गरीबों से फैल जाएगी ये बीमारी L
उसी के चलते उनकी भूख प्यास को चुप कराने के लिए जो जो गरीबो की मदद में
बाँटा गया है उसका इंतज़ाम कागज़ों पे पूरा था
हाँ मौतें हुई हैं कैसे कैसे ये बताना जरूरी नहीं है
सरकारी आंकड़ों और सरकारी लिहाज से
ये मानवीय मन है जड़ो में लौटता ही है
कारण तैयार है इसीलिए आश्वस्त हैं
मजदूरों का पैदल चलना भूखे प्यासे होना
कहाँ हो हल्ला वाली बात है …
मौते एक आंकड़ा भर हैं
अखवारों में दर्ज हो ही जाएंगी ….
हैरान थे यमराज शांत यमदूत और मौन थे चित्रगुप्त भी
ग़रीब मजबूर मजदूरों की आत्माएँ बिलख रही थीं
वही-खाते बिखरे पड़े थे
ईश्वर भी अब सोच में था
ग़रीबी, मजबूर, बच्चे की माँ बनना कब आसां था
दुधमुँहे बच्चों के लिए माँ किसको बनाए …
माँ किसको बनाए …

प्रज्ञा शालिनी
भोपाल

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