गौरव अवस्थी
रंगभरनी एकादशी कृष्ण जन्मभूमि और यहां की होली देखने आने वालों दोनों के लिए एक खास अवसर है। इस बार की मथुरा यात्रा का खास मकसद ही जन्म भूमि की लठामार होली ही थी। कृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट द्वारा संचालित अंतरराष्ट्रीय विश्राम गृह का कमरा नंबर- 6 ही अपना ठिकाना बना। मथुरा की होली ऐसे ही आकर्षित करती है। उस पर रंगभरनी एकादशी का दिन हो तो नींद कहां से आए?
सुबह 5 बजे ही आंख खुल गई। चाय की तलब जन्म भूमि के मुख्य द्वार के सामने “दनादन चायवाले” की तरफ खींच ले गई। कई युवा, महिलाएं रंगभरनी एकादशी की होली का मजा लेने के लिए बाहर बरामदे में, खुले में रात बिताती नजर आई। गेट पर कतार लगनी शुरू हो चुकी थी। कुछ लड़कियां फोटो खींचने में मशगूल थीं और कुछ लड़के सेल्फी लेने में। सुबह का आगाज ही यह एहसास कराने लगा था कि आज मंदिर में कुछ खास है।
घड़ी की सुई बढ़ती जा रही थी और अपनी होली वाली टोली (विनय द्विवेदी, करुणाशंकर मिश्रा, सुधीर द्विवेदी, अमर द्विवेदी, यादवेंद्र प्रताप सिंह, चंद्रमणि बाजपेई, सुनील मिश्रा “सेनानी”) की धड़कन। ट्रस्ट के ही भोजनालय में दोपहर का भोजन ग्रहण करने के बाद विश्राम गृह के सेवादार प्रेम शंकर दीक्षित उर्फ पप्पू मंदिर में प्रवेश कराने के लिए सक्रिय हो चुके थे। कृष्ण जन्मभूमि मंदिर ट्रस्ट के सचिव श्री कपिल शर्मा जी और भाई वात्सल्य राय जी ने विश्राम गृह के केयरटेकर रणधीर सिंह एवं पप्पू को ही लट्ठमार होली महोत्सव स्थल केशव वाटिका तक पहुंचाने की हम सबकी जिम्मेदारी इन्हीं दोनों को सौंपी थी।
दो बजते-बजते हम सब जन्मभूमि परिसर में शॉर्टकट से दाखिल हो गए। धूप तेज थी और होली महोत्सव देखने की जिज्ञासा उससे भी ज्यादा। उस समय केशव वाटिका का मैदान लगभग खाली ही था। अपनी जगह सुनिश्चित करने के लिए हम सब एक जगह कुर्सियों पर जम गए। थोड़ी देर बाद होली गीतों की धुन आर्केस्ट्रा के कलाकार बजानी शुरू करते हैं। एंकरिंग के लिए एक मोटी सी महिला स्टेज पर ही कपिल शर्मा के साथ कुछ होमवर्क के साथ अवतरित होती है और शुरू हो जाता है लठामार होली महोत्सव।
ब्रज और बुंदेलखंड से आए कलाकारों-गायकों से सुसज्जित होली महोत्सव के मंच पर गणेश वंदना के बाद शुरू होते हैं होली के गीत। श्री श्री 1008 स्वामी गुरुशरणानंद जी महाराज की उपस्थिति इस मंच और महोत्सव दोनों की शोभा बढ़ाती है। धीरे-धीरे-धीरे-धीरे माहौल होली मय होना शुरू होता है तो होता ही चला जाता है। कभी कृष्ण कन्हाई और राधा रानी के वेश में सजे दो बच्चों की झांकी धूम-धड़ाके के साथ पहुंचती है। घड़ी की सुई जैसे ही 5:00 बजे के आगे बढ़नी शुरू होती है वैसे-वैसे होली का मजा भी बढ़ता चला जाता है। ब्रज का प्रसिद्ध चरकुला नृत्य (जिसमें कलाकार सिर पर मटकी, जलते हुए दीपकों को रखकर नृत्य प्रस्तुत करते हैं) देखकर होली का रोमांच बढ़ गया।
फूलों की होली के बीच ही द्वारकाधीश मंदिर से उठने वाला जन्मभूमि का डोला पुराने केशव देव मंदिर होते हुए केशव वाटिका पहुंचना शुरू होता है। डोले के साथ सैकड़ों गोपियां और ग्वाल बाल लट्ठमार होली खेलते हुए चल रहे हैं। यह होरिहारे और गोपियां बरसाना वृंदावन और नंदी गांव से खास तौर पर होली खेलने के लिए आई हैं। होली के उल्लास में डूबे होरिहारों में गोपियों के लट्ठे से बचने के लिए बीच-बीच में भगदड़ मचती है और यह भगदड़ आपको मजा भी देती है और डराती भी। होरिहारों और लट्ठ से लैस इस जत्थे केशव वाटिका पहुंचते ही शुरू होता है जन्मभूमि की लठामार होली। मंच पर होली गीतों पर थिरकते कलाकार और मैदान में और होरिहारों पर लठ बरसाती गोपियों के दृश्य अद्भुत हैं और अवर्णनीय भी।
लठामार होली देखने-सुनने के आई भक्तों की भारी भीड़ से केशव वाटिका का मैदान छोटा पड़ गया। जन्मभूमि की सारी व्यवस्थाएं छोटी पड़ गई। सुरक्षा बौनी हो गई। वाटिका में तैनात पुलिस वाले खुद होली के रंग में डूब से गए। पूरे देश से आए लोगों से खचाखच भरे मैदान में अबीर गुलाल से आसमान रंगीन हो गया। लाल-हरे-नीले-पीले-बैगनी रंगों से पटे इस आसमान के नीचे चल रही लट्ठमार होली के दौरान कभी इस हिस्से में भगदड़ कभी उस हिस्से में भगदड़। लट्ठ लगने से कुछ होरिहारे लंगड़ाते हुए भी गए। गोपियों के लट्ठ से खाकी वर्दीधारी भी बच नहीं पाते। हमेशा दूसरों पर लाठी बरसाने वाले यह खाकी वर्दीधारी आज गोपियों के लट्ठ हंसते हुए खा रहे हैं। भाग रहे हैं।
एक घंटे तक चलने वाली इस लट्ठमार होली में टेंट के स्ट्रक्चर के ऊपर लगी पिचकारियों से टेसू के फूल वाले बरसते रंग में भीगते हुए होली की मस्ती में डूबना अब सपना ही है। इस सपने को सच करता है रंगभरनी एकादशी पर कृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट की ओर से आयोजित लठमार होली महोत्सव। स्थानीय और विभिन्न राज्यों के हजारों-हज़ार महिलाएं-पुरुष-बच्चे भाग लेने पहुंचे हुए हैं। लट्ठ लगने का डर भी सभी को मजा लूटने से रोक नहीं पाता।
द्वारकाधीश मंदिर
कृष्ण जन्म भूमि से सिर्फ डेढ़ किलोमीटर दूर चौक बाजार में स्थित दो-ढाई सौ वर्ष पुराने द्वारकाधीश मंदिर की होली का भी अपना अलग ही मजा है। रंगभरनी एकादशी पर हम सबकी होली खेलने की शुरुआत द्वारकाधीश मंदिर से ही हुई। ई-रिक्शा की सवारी का मजा लेते हुए हम सब सुबह 8:00 बजे ही द्वारकाधीश मंदिर पहुंच गए। मुगल काल में मथुरा के मंदिर तोड़े जाने के बाद लक्ष्मीचंद जैन ने द्वारिकाधीश मंदिर बनवाया। आजकल पुष्टिमार्गीय संतों की देखरेख में द्वारकाधीश मंदिर संचालित है। सुबह 8:25 मिनट पर श्रंगार आरती और 10:00 बजे द्वारिकाधीश को भोग के बाद शुरू हुआ होली गीत-फाग और अबीर-गुलाल उड़ने का सिलसिला। एक घंटे तक गीत गूंजते रहे और अबीर गुलाल उड़ता रहा। नाचते गाते एक दूसरे को अबीर गुलाल लगाते कब 11:00 बज गए पता ही नहीं चला। आरती के बाद पट बंद होने पर मंदिर की होली ने विश्राम ले लिया।
यमुना जी का तट और विश्राम घाट
जगदीश मंदिर में होली के बाद हम सब यमुना जी के दरस परस के लिए हम सब विश्राम घाट की ओर बढ़े। घाट पर पहुंचने के पहले ही भाई-बहन के पवित्र प्रेम के लिए प्रसिद्ध धर्मराज यमराज और यमुना जी के मंदिर में माथा टेकने का सुयोग भी इस बार ही बना। इस मंदिर में यम द्वितीया पर यमुना जी में स्नान में बाद भाई बहन के साथ-साथ पूजा-प्रार्थना की परंपरा है। यह मंदिर देखकर मन अपने आप भावुक इसलिए हुआ कि भैया (स्मृति शेष नीरज अवस्थी) पहले कई बार हमसे और दीदी (गरिमा मिश्रा) से यह द्वितीया पर यहां आने के लिए कहते रहे लेकिन शायद द्वारकाधीश को यह मंजूर नहीं था। यमुना जी के दरस-परस के बाद बोटिंग के दौरान यमुना जी के बदबूदार काले पानी को देखकर मन खिन्न हो गया। हालांकि, पढ़ाई के साथ-साथ गाइड काम करने वाली युवा माधव चतुर्वेदी लगातार इस बात पर ही जोर देता रहा कि यमुना मिशन अच्छे से चल रहा है और नाले का गंदा पानी साफ होकर ही यमुना में गिर रहा है।
अथ होली यात्रा समाप्तम..